Saturday, 7 November 2015

पौराणिक कथा: कैसे हुआ धरती और हिमालय का निर्माण?


लाखों वर्षो पहले की बात है जब भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषशायी हुआ करते थे, उसी समय उस सागर में एक समुद्री चिड़िया का दम्पति रहता था. मादा चिड़िया हर साल समुद्र के किनारे अंडे देती थी लेकिन हर बार समुन्द्र उन अन्डो को अपने थपेड़ो से नष्ट कर देता था.

काफी समय तक जब ऐसा ही चलता रहा तो समुद्री चिड़िया के उस जोड़े ने भगवान विष्णु को अपना दुखड़ा कह सुनाया, उनकी करुण पुकार सुन विष्णु जी का दिल भर आया और उन्होंने समुन्द्र के पुरे जल को निगल लिया. समुन्द्र से जब पूरा जल समाप्त हो गया तो जो भू भाग बना उसे ही हम आज धरती माता के नाम से जानते है.


समुन्द्र को निगलने पर भगवान को सुस्ती आई और वो गहरी नींद में सो गए, लेकिन तब ऋषि कश्यप और दिति( दक्ष कन्या) का पुत्र असुर हिरण्याक्ष वंहा आ धमका. वो सोने का शौकीन था इसलिए उसने धरती से सोना निकलना शुरू किया, उसने इतना सोना निकल लिया की धरती के कई भाग अपनी कक्षा से उठने लगे. 

उन उठे हुए भूभाग का ढेर अंत में हिमालय का रूप ले चूका था, पर तब हिरण्याक्ष ने धरती को लेजके समुन्द्र ताल में छुपा दिया. तब भगवान विष्णु की नींद खुली और उन्होंने हिरण्याक्ष से युद्ध किया, ये युद्ध एक हजार साल चला अंत में असुर परास्त हुआ और भगवान विष्णु के हाथो मारा गया.

इस प्रकार धरती और हिमालय का निर्माण हुआ जो कालांतर में आज का स्वरुप ले चुके है, उसके बाद ब्रह्मा ने धरती को इंसानो के रहने लायक बनाया. अक्षय तृतीया के दिन भगवान विष्णु ने अपने मानस पुत्रो सप्त ऋषियों और दस प्रजापतियों का निर्माण किया और उन्हें धरती पर रहने भेजा.

उसी दौरान ही समुन्द्र मंथन भी हुआ था जिसमे पर्वत के घर्षण को रोकने के लिए भगवान विष्णु ने कुर्मा( कछुआ) अवतार लिया. 1728000 साल बाद जब सतयुग का अंत हुआ तो सप्तऋषियों और मनु को बचने के लिए भगवान विष्णु ने मतस्य अवतार लिया. दुनिया के पौराणिक इतिहास को जानने के लिए जुड़े रहे हमारे साथ.

Friday, 6 November 2015

द्वापर युग की समाप्ति पे कैसे हुआ था पांडवो का अंत!

भगवान कृष्ण एक जंगल से होके निकल रहे थे तभी उनके पैर में एक कांटा लगा और वो दर्द से कराहते हुए एक पेड़ के नीचे बैठ गए, तभी एक भील शिकारी वंही से निकला, उसे कृष्ण की कराह किसी जानवर सी लगी और उसने शब्दभेदी वाण से तीर चलाया जो सीखा कृष्ण के पैर में लगा.

जब शिकारी ने कृष्ण को देखा तो वो रो पड़ा और क्षोभ करने लगा, तब कृष्ण ने उसे पूर्व जन्म का स्मरण कराया जब राम रूप में उन्होंने छुप कर बाली को  मारा था और भील वही बाली था. तब बाली रूपी भील चुप हुआ वैकुण्ठ से गरुड़ आये और भगवान सशरीर अपने निवास चले गए.


अर्जुन को कृष्ण ने पहले ही अपने द्वारिका नगरी की जवाबदेही सौंप रखी थी, अर्जुन द्वरिकावासियो समेत जैसे ही नगर के बाहर निकले की नगर समुद्र में डूब गया। अर्जुन यदुवंश को लेकर तेजी से हस्तिनापुर की ओर चलने लगे, रास्ते में कालयवन के बचे हुए सैनिक वहां लुटेरों के रूप में तैयार थे. जब उन्होंने देखा कि अर्जुन अकेले ही इतने बड़े जनसमुदाय को लेकर जा रहे हैं तो धन के लालच में आकर उन्होंने उन पर हमला कर दिया।

अर्जुन ने अपनी शक्तियों को याद किया, लेकिन उसकी शक्ति समाप्त हो गई, अर्जुन जैसे योद्धा के होते भी भगवान कृष्ण के नगरवासी लुटे और गोपियों तक को लुटेरे उठा ले गए अर्जुन को पता न थी लेकिन कृष्ण के साथ ही सारी शक्तिया समाप्त हो गई.



अर्जुन ने जब ये व्यास ऋषि को बताया तब उन्होंने कहा कि जिस उद्देश्य से तुम्हे शक्तिया प्राप्त हुई थी वो अब पूरे हुए, अत: अब तुम्हारे परलोक गमन का समय आ गया है और यही तुम्हारे लिए सही है।

महर्षि वेदव्यास की बात सुनकर अर्जुन उनकी आज्ञा से हस्तिनापुर आए और उन्होंने पूरी बात महाराज युधिष्ठिर को बता दी। महर्षि वेदव्यास की बात मानकर द्रौपदी सहित पांडवों ने राज-पाठ त्याग कर परलोक जाने का निश्चय किया, सुभद्रा को राज माता बनाया गया, परीक्षित अभी छोटा था इसलिए राजकाज की जिम्मेदारी युयुत्सु को दी गई।

पांडवों व द्रौपदी ने साधुओं के वस्त्र धारण किए और स्वर्ग जाने के लिए निकल पड़े, पांडवों के साथ-साथ एक कुत्ता भी चलने लगा। अनेक तीर्थों, नदियों व समुद्रों की यात्रा करते-करते पांडव आगे बढऩे लगे। यात्रा करते-करते पांडव हिमालय तक पहुंच गए, हिमालय लांघ कर पांडव आगे बढ़े तो उन्हें बालू का समुद्र दिखाई पड़ा।

इसके बाद उन्होंने सुमेरु पर्वत के दर्शन किए, वंही से सारे पांडव एक एक करके मरने लगे सिर्फ युधिष्ठर और उनके साथ ही चल रहा एक कुत्ता जीवित रहा. युधिष्ठिर कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें स्वर्ग ले जाने के लिए स्वयं देवराज इंद्र अपना रथ लेकर आ गए, तब युधिष्ठिर ने इंद्र से बाकि पांडवो के मरने का कारण पूछा.

इंद्र ने बताया की पांचाली अर्जुन से ज्यादा मोह के चलते और भीम को बल का अर्जुन को युद्ध कौशल का नकुल को रूप और सहदेव को बुद्धि पर घमंड था इसके कारण वे सशरीर स्वर्ग नहीं जा पाये।


युधिष्ठिर ने कहा कि यह कुक्कर मेरे साथ ही जायेगा इसने मेरा साथ नहीं छोड़ा, तब कुत्ता यमराज के रूप में बदल गया। युधिष्ठिर को कुत्ते से भी सद्भावना रखने पर आनंदित हुए, इसके बाद देवराज इंद्र युधिष्ठिर को अपने रथ में बैठाकर स्वर्ग ले गए। दरअसल वो कुत्ता विदुर के रूप में यमराज की आत्मा थी, यमराज मांडव्य ऋषि के श्राप के चलते विदुर रूप में जन्मे थे.

युधिष्ठिर को पहले स्वर्ग के धोखे में नरक ले जाया गया जन्हा उन्हें किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी, वे उसे कुछ देर वहीं ठहरने के लिए कह रहे थे। युधिष्ठिर ने जब पूछा की तुम कौन हो तो उन्होंने पांडव होने का दावा किया, तब युधिष्ठिर ने उस देवदूत से कहा कि तुम पुन: देवताओं के पास लौट जाओ, मेरे यहां रहने से यदि मेरे भाइयों को सुख मिलता है तो मैं इस दुर्गम स्थान पर ही रहूंगा।



देवदूत ने यह बात जाकर देवराज इंद्र को बता दी, तब उन्हें बताया गया की सिर्फ एक झूठ जिसके कारण अश्वत्थामा के पिता द्रोण मृत्यु को प्राप्त हुए, तुम्हे भी छल से ही कुछ देर नरक के दर्शन पड़े। अब तुम मेरे साथ स्वर्ग चलो। वहां तुम्हारे भाई व अन्य वीर पहले ही पहुंच गए हैं तब देवराज इंद्र के कहने पर युधिष्ठिर ने देवनदी गंगा में स्नान किया, स्नान करते ही उन्होंने मानव शरीर त्याग करके दिव्य शरीर धारण कर लिया।

इसके बाद बहुत से महर्षि उनकी स्तुति करते हुए उन्हें उस स्थान पर ले गए जहां उनके चारों भाई, कर्ण, भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रौपदी आदि आनंदपूर्वक विराजमान थे। युधिष्ठिर ने वहां भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किए, अर्जुन उनकी सेवा कर रहे थे और युधिष्ठिर को आया देख श्रीकृष्ण व अर्जुन ने उनका स्वागत किया।



युधिष्ठिर ने देखा कि भीम पहले की तरह शरीर धारण किए वायु देवता के पास बैठे थे, कर्ण को सूर्य के समान स्वरूप धारण किए बैठे देखा। नकुल व सहदेव अश्विनी कुमारों के साथ बैठे थे तब देवराज इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि ये जो साक्षात भगवती लक्ष्मी दिखाई दे रही हैं। इनके अंश से ही द्रौपदी का जन्म हुआ था, इसके बाद इंद्र ने महाभारत युद्ध में मारे गए सभी वीरों के बारे में युधिष्ठिर को विस्तार पूर्वक बताया। इस प्रकार युधिष्ठिर अपने भाइयों व अन्य संबंधियों को वहां देखकर बहुत प्रसन्न हुए।

पांडवों के स्वर्गारोहण के इस प्रसंग के साथ ही महाभारत कथा समाप्त हो जाती है।

द्वापर युग की समाप्ति पे कैसे हुआ था पांडवो का अंत!

भगवान कृष्ण एक जंगल से होके निकल रहे थे तभी उनके पैर में एक कांटा लगा और वो दर्द से कराहते हुए एक पेड़ के नीचे बैठ गए, तभी एक भील शिकारी वंही से निकला, उसे कृष्ण की कराह किसी जानवर सी लगी और उसने शब्दभेदी वाण से तीर चलाया जो सीखा कृष्ण के पैर में लगा.

जब शिकारी ने कृष्ण को देखा तो वो रो पड़ा और क्षोभ करने लगा, तब कृष्ण ने उसे पूर्व जन्म का स्मरण कराया जब राम रूप में उन्होंने छुप कर बाली को  मारा था और भील वही बाली था. तब बाली रूपी भील चुप हुआ वैकुण्ठ से गरुड़ आये और भगवान सशरीर अपने निवास चले गए.


अर्जुन को कृष्ण ने पहले ही अपने द्वारिका नगरी की जवाबदेही सौंप रखी थी, अर्जुन द्वरिकावासियो समेत जैसे ही नगर के बाहर निकले की नगर समुद्र में डूब गया। अर्जुन यदुवंश को लेकर तेजी से हस्तिनापुर की ओर चलने लगे, रास्ते में कालयवन के बचे हुए सैनिक वहां लुटेरों के रूप में तैयार थे. जब उन्होंने देखा कि अर्जुन अकेले ही इतने बड़े जनसमुदाय को लेकर जा रहे हैं तो धन के लालच में आकर उन्होंने उन पर हमला कर दिया।

अर्जुन ने अपनी शक्तियों को याद किया, लेकिन उसकी शक्ति समाप्त हो गई, अर्जुन जैसे योद्धा के होते भी भगवान कृष्ण के नगरवासी लुटे और गोपियों तक को लुटेरे उठा ले गए अर्जुन को पता न थी लेकिन कृष्ण के साथ ही सारी शक्तिया समाप्त हो गई.



अर्जुन ने जब ये व्यास ऋषि को बताया तब उन्होंने कहा कि जिस उद्देश्य से तुम्हे शक्तिया प्राप्त हुई थी वो अब पूरे हुए, अत: अब तुम्हारे परलोक गमन का समय आ गया है और यही तुम्हारे लिए सही है।

महर्षि वेदव्यास की बात सुनकर अर्जुन उनकी आज्ञा से हस्तिनापुर आए और उन्होंने पूरी बात महाराज युधिष्ठिर को बता दी। महर्षि वेदव्यास की बात मानकर द्रौपदी सहित पांडवों ने राज-पाठ त्याग कर परलोक जाने का निश्चय किया, सुभद्रा को राज माता बनाया गया, परीक्षित अभी छोटा था इसलिए राजकाज की जिम्मेदारी युयुत्सु को दी गई।

पांडवों व द्रौपदी ने साधुओं के वस्त्र धारण किए और स्वर्ग जाने के लिए निकल पड़े, पांडवों के साथ-साथ एक कुत्ता भी चलने लगा। अनेक तीर्थों, नदियों व समुद्रों की यात्रा करते-करते पांडव आगे बढऩे लगे। यात्रा करते-करते पांडव हिमालय तक पहुंच गए, हिमालय लांघ कर पांडव आगे बढ़े तो उन्हें बालू का समुद्र दिखाई पड़ा।

इसके बाद उन्होंने सुमेरु पर्वत के दर्शन किए, वंही से सारे पांडव एक एक करके मरने लगे सिर्फ युधिष्ठर और उनके साथ ही चल रहा एक कुत्ता जीवित रहा. युधिष्ठिर कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें स्वर्ग ले जाने के लिए स्वयं देवराज इंद्र अपना रथ लेकर आ गए, तब युधिष्ठिर ने इंद्र से बाकि पांडवो के मरने का कारण पूछा.

इंद्र ने बताया की पांचाली अर्जुन से ज्यादा मोह के चलते और भीम को बल का अर्जुन को युद्ध कौशल का नकुल को रूप और सहदेव को बुद्धि पर घमंड था इसके कारण वे सशरीर स्वर्ग नहीं जा पाये।


युधिष्ठिर ने कहा कि यह कुक्कर मेरे साथ ही जायेगा इसने मेरा साथ नहीं छोड़ा, तब कुत्ता यमराज के रूप में बदल गया। युधिष्ठिर को कुत्ते से भी सद्भावना रखने पर आनंदित हुए, इसके बाद देवराज इंद्र युधिष्ठिर को अपने रथ में बैठाकर स्वर्ग ले गए। दरअसल वो कुत्ता विदुर के रूप में यमराज की आत्मा थी, यमराज मांडव्य ऋषि के श्राप के चलते विदुर रूप में जन्मे थे.

युधिष्ठिर को पहले स्वर्ग के धोखे में नरक ले जाया गया जन्हा उन्हें किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी, वे उसे कुछ देर वहीं ठहरने के लिए कह रहे थे। युधिष्ठिर ने जब पूछा की तुम कौन हो तो उन्होंने पांडव होने का दावा किया, तब युधिष्ठिर ने उस देवदूत से कहा कि तुम पुन: देवताओं के पास लौट जाओ, मेरे यहां रहने से यदि मेरे भाइयों को सुख मिलता है तो मैं इस दुर्गम स्थान पर ही रहूंगा।



देवदूत ने यह बात जाकर देवराज इंद्र को बता दी, तब उन्हें बताया गया की सिर्फ एक झूठ जिसके कारण अश्वत्थामा के पिता द्रोण मृत्यु को प्राप्त हुए, तुम्हे भी छल से ही कुछ देर नरक के दर्शन पड़े। अब तुम मेरे साथ स्वर्ग चलो। वहां तुम्हारे भाई व अन्य वीर पहले ही पहुंच गए हैं तब देवराज इंद्र के कहने पर युधिष्ठिर ने देवनदी गंगा में स्नान किया, स्नान करते ही उन्होंने मानव शरीर त्याग करके दिव्य शरीर धारण कर लिया।

इसके बाद बहुत से महर्षि उनकी स्तुति करते हुए उन्हें उस स्थान पर ले गए जहां उनके चारों भाई, कर्ण, भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रौपदी आदि आनंदपूर्वक विराजमान थे। युधिष्ठिर ने वहां भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किए, अर्जुन उनकी सेवा कर रहे थे और युधिष्ठिर को आया देख श्रीकृष्ण व अर्जुन ने उनका स्वागत किया।



युधिष्ठिर ने देखा कि भीम पहले की तरह शरीर धारण किए वायु देवता के पास बैठे थे, कर्ण को सूर्य के समान स्वरूप धारण किए बैठे देखा। नकुल व सहदेव अश्विनी कुमारों के साथ बैठे थे तब देवराज इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि ये जो साक्षात भगवती लक्ष्मी दिखाई दे रही हैं। इनके अंश से ही द्रौपदी का जन्म हुआ था, इसके बाद इंद्र ने महाभारत युद्ध में मारे गए सभी वीरों के बारे में युधिष्ठिर को विस्तार पूर्वक बताया। इस प्रकार युधिष्ठिर अपने भाइयों व अन्य संबंधियों को वहां देखकर बहुत प्रसन्न हुए।

पांडवों के स्वर्गारोहण के इस प्रसंग के साथ ही महाभारत कथा समाप्त हो जाती है।

Thursday, 5 November 2015

दिवाली के दिन शुरू हुआ था महाभारत का युद्ध, 40 लाख में से सिर्फ 12 ही बचे थे जिन्दा!



भगवान कृष्ण ने निकला था युद्ध के दिन का मुहूर्त दिवाली के दिन शुरू हुआ था महाभारत का महायुद्ध, कुरुक्षेत्र की धरती पर थे द्वेष छोटी सी बहस पे एक किसान ने अपने ही भाई का वंहा किया था खून. महाभारत के युद्ध के ऐसे कुछ तथ्य जिनसे आप अब तक अनजान होंगे, पांडवो का नेतृत्व युधिष्ठर तो कौरवो का दुर्योधन कर रहा था.

युद्ध की रणनीति पांडवो की कृष्ण और कौरवो की शकुनि कर रहा था तैयार, पांडवो के पास सात अक्षयोनि सेनाये थी तो कौरवो के पास ग्यारह की संख्या में थी. पांडवो के पास 153090 रथ और उनके साथी थे तो कौरवो के पास 240570 की गिनती में थे. 153090 हाथी और हाथीसवार योद्धा थे पांडवो के पास तो कौरवो के पास 240570 हाथी और सवार थे.


पांडवो के लिए पहले दिन से अठारहवें दिन तक धृष्टद्युमय सेना पति थे जबकि कौरवो के लिए पहले से दसवे दिन भीष्म, ग्यारहवे से पंद्रहवे दिन द्रोणाचार्य और सलाह व् सत्रहवें दिन कर्ण था सेना पति आखिरी दिन शल्य थे कौरवो के सेना पति. पांडवो के पास 459270 घोड़े और घुड़सवार थे जबकि कौरवो के पास 721710 की संख्या में थे, पैदल सैनिक पांडवो के पास 765450 थे तो कौरवो के पास 1202850 की संख्या में थे.

कुल मिला के पांडव सेना 1530900 थी तो कौरव सेना 2405700 थी, पांडवो की तरफ से पांच पांडव कृष्ण सत्याकी और युयुत्सु बचे थे तो कौरवो में कृपाचार्य अश्वथामा कृतवर्मा और वृषकेतु जीवित बचे थे. ये महायुद्ध के आंकड़े विकिपीडिया से लिए गए है, हालाँकि भारत का महाग्रंथ महाभारत भी इसकी पुष्टि करता है. 

युद्ध के दसवे दिन तक भीष्म कौरवो के सेनापति थे और तब तक कौरव ही युद्ध में जीत के हक़दार थे, एक और बात जब तक भीष्म सेनापति थे उन्होंने कर्ण को युद्ध लड़ने की इजाजत नही दी थी क्योंकि वो एक सूत पुत्र था. ग्यारहवे दिन से कर्ण ने युद्ध में शिरकत की और ड्रोन सेना पति बने जिन्होंने युधिष्ठर को अगवा करने की योजना पर काम किया जो की अभिमन्यु की मौत के बाद त्यागा गया, क्योंकि अभिमन्यु को युद्ध के कायदो को तोड़के मार गया था.


युद्ध में कुछ कायदे कानून बनाये गए थे जो की युद्ध शुरू होने से पहले ही तय किये गए थे इनमे से मुख्य कुछ इस तरह थे, एक योद्धा एक समय में एक से लड़ेगा, निहत्थे पर वार नही होगा रथ से उत्तर जाने पर किसी पे हमला नही होगा. घायल और अधमरे या बेहोश की हत्या नही होगी गदा युद्ध में जंघा पर वार नही होगा और महारथी किसी महिला पे वार नही करेंगे.


अभिमन्यु पे पेंतीस योद्धाओ ने एक साथ आक्रमण किया निहत्था होने और रथ से उतरे होने पर भी उसपे हमले हुए इतना ही नही पीठ के पीछे से भी वार कर अभिमन्यु को मारा गया था. 

कौरवो ने एक बार नियम क्या तोडा पांडवो ने उसे अपना हथियार बना लिया कर्ण, द्रोणाचार्य भूरिश्रवा दुर्योधन शकुनि दुस्साशन युद्ध नियम के विपरीत ही मारे गए थे.

धनतेरस से जुडी है एक पौराणिक कलेजा भर आने वाली कहानी


दिवाली से ठीक दो दिन पहले यानि कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मनाया जाता है धनतेरस का त्यौहार, इस दिन सोने चांदी की खूब खरीदारी होती है और रात में दिन दान द्वारा धन्वन्तरि की पूजा होती है. लेकिन इस दिन के पीछे की छुपी कहानी जान आप बच सकते है असमय/अकाल मृतरयु से.

एक बार यमराज ने अपने गणो से पूछा की तुम लोग मेरे कहने पर जीवो के प्राण हरने का काम करते हो क्या तुम्हे कभी इसमें कुछ अजीब नही लगा या तुम्हे तरस नही आया. इस्पे सब गणो ने अपनी कर्तव्य निष्ठां जताई लेकिन जब यमराज ने पुनः पूछा की संकोच न करो मुझे बताओ तो एक गण ने बताया की महाराज एक बार ऐसा हुआ था की हमारा भी कलेजा भर आया था.

राजा हिमा को पुत्र हुआ तो आनंद उत्सव हुआ लेकिन जन्म कुंडली के हिसाब से उसकी मृत्यु शादी के चार दिन बाद ही निश्चित थी, इस कारन राजा उसे एक जंगल में यमुना नदी के किनारे एक गुफा में रख आया. लेकिन होनी को कौन टाल सकता था, हंस राजा की बेटी वंहा से वन विहार करती गुजरी और राजकुमार को देख रीझ गई और गन्धर्व विवाह कर लिया.

दोनों की जोड़ी कामदेव और रति सरीखी थी दोनों में अटूट प्रेम था लेकिन जब चौथे दिन हम राजकुमार के प्राण हरने गए तो हमारा कलेजा पसीज गया. यमराज में सुन द्रवित हो गए लेकिन विधि के विधान को कौन टाल सकता है तब एक यम ने पूछा की प्रभु ऐसी अकाल मृत्यु को टाला नही जा सकता है क्या?

इस पर यमराज ने कहा की धन तेरस के दिन दिन दान और विधि पूर्वक पूजन होता है धन धन्य को खुला रखा जाता है और रात भर तेल के दिए जलाये जाते है उन मनुष्यो की कभी भी अकाल मृत्यु नही होती है.

श्रीकृष्ण के कहने पर दिवाली के अगले दिन गाय के गोबर की, की जाती है पूजा!

बात हजारो वर्षो पूर्व की है जब भगवान कृष्ण ने अपनी बाल लीलाओ से पुरे वृन्दावन में धूम मचा रही थी, ऐसे में ही उन्होंने इंद्र के घमंड को चूर करने की सोची. मथुरा वृन्दावन और समस्त ब्रज क्षेत्र के लोग दीवपळी के अगले दिन इंद्र की पूजा करते थे, उनकी मान्यता थी की अगर ऐसा नही करेंगे तो इंद्र देव नाराज हो जायेंगे.

लेकिन ऐसे में कृष्ण ने सबकी समझाया की असल में वर्षा का कारन इंद्र देव नही बल्कि गोवर्धन पर्वत है, जिसकी हरियाली बदलो को कर्षित करती है. गोवर्धन पर्वत की ऊंचाई से बदल घिर के वंही बरसते है उसी से हमारी गायो को चारा मिलता है, ब्रजमंडल की खुशहाली का कारण गोवर्धन पर्वत है न की इंद्र देव.

सबको हालाँकि डर लग रहा था लेकिन बाद में कृष्ण की बात समझ में आ गई और वृन्दावन के वासियो ने गोवर्धन पर्वत की पूजा की और इंद्र को चढ़ाये जाने वाली सारी सामग्री गोवर्धन को चढ़ी, गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा की गई और साथ में गौ धन यानी गायो की भी पूजा की गई.

जब ये बात इंद्र को पता चली तो उसके क्रोध की सीमा न रही, इंद्र ने वायु जल देवता को वृन्दावन पे कहर ढाने के लिए भेजा. लगातार  तेज हवाई और वर्षा तूफान शुरू हो गए, तब पुरे नगर वासी नन्द बाबा के यंहा पहुंचे और कृष्ण के कहे अनुसार करने पर इंद्र देव के प्रकोप का उलाहना देने लगे.

तब भगवान कृष्ण ने सबको गोवर्धन पर्वत की तरफ जाने को कहा, उन्होंने कहा की गोवर्धन पर्वत उनकी रक्षा करेंगे और देखते ही देखते पूरा नगर अपने पशुधन समेत गोवर्धन पर्वत के पास पहुंचा. तब स्वयं इंद्र भी आ पहुंचा और बारिश ओले आदि मौसमी विपदा की हद पार कर दी.
तब भगवान कृष्ण ने अपनी दहिये हाथ की सबसे छोटी अंगुली मात्र पर गोवर्धन को उठा लिया और सारे वृन्दावन वासी उसकी ओट में डट गए. लगातार सात दिन और सात रातों तक बारिश और तूफान चला लेकिन वृन्दावन वासी गोवर्धन पर्वत की ओट में सुरक्षित थे.

तब इंद्र को कृष्ण की हक़ीक़त का ज्ञान हुआ और उसने तुरंत अपने सारे प्रकोप रोके और भगवान कृष्ण से क्षमा याचना की, तब इंद्र को माफ़ी मिली और तब से ही इंद्र की पूजा बंद हो गई. उसी दिन से पुरे भारत भर में दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पर्वत की पूजा होने लगी.

पूरा भारत गोवर्धन पर्वत की पूजा के लिए नही पहुँच सकता था इसलिए भगवान कृष्ण ने गाय के गोबर से छोटा पर्वत बना उसकी ही पूजा और परिक्रमा को गोवर्धन पर्वत की पूजा के तुल्य बता दिया था. गोवर्धन का अर्थ है गौ धन, मतलब गाय यानि गाय भी गोवर्धन इसलिए भारत में कई स्थानो पर गाय की भी इस दिन पूजा की जाती है