Thursday, 16 June 2016

तीर्थोकामहत्व

तीर्थोकामहत्व
एक समय की बात है। गंगा के किनारे एक आश्रम में गुरु जी के पास कुछ शिष्यगण बैठे हुए कुछ धार्मिक स्थलों की चर्चा कर रहे थे। एक शिष्य बोला गुरु जी अब की बार गर्मियों में गंगोत्री, यमनोत्री की यात्रा हमें आपके साथ करनी है। आपके साथ यात्रा का कुछ अलग ही आनंद है। दर्शन के साथ-साथ हर चीज का महत्व भी जीवंत हो जाता है। तभी दूसरा शिष्य कहने लगा, गुरु जी आप हमेशा कहते हैं कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, वो घट-घट में है, आपमें व मुझमें भी ईश्वर है। गंगा तो यहां भी बह रही है, फिर क्यों गंगोत्री, यमनोत्री जाएं और 15 दिन खराब करें। गुरु जी एक दम शांत हो गए फिर कुछ देर के बाद बोले -जमीन में पानी तो सब जगह है ना, फिर हमें जब प्यास लगे, जमीन से पानी मिल ही जाएगा तो हमें कुएं, तालाब, बावड़ी बनाने की क्या जरूरत है।
कुछ लोग एक साथ बोले, ये कैसे संभव है। जब हमें प्यास लगेगी तब ही कुंआ खोदने में कैसी समझदारी है। गुरु जी बोले बस यही तुम्हारे प्रश्न, तुम्हारी जिज्ञासा का उत्तर है। पृथ्वी में हर जगह पानी होने के बावजूद जहां वह प्रकट है या कर लिया गया है, आप वहीं तो प्यास बुझा पाते हैं। इसी तरह ईश्वर जो सूक्ष्म शक्ति है, घट-घट में व्याप्त है, ये तीर्थ स्थल, कुंए और जलाशयों की भांति, उस सूक्ष्म शक्ति के प्रकट स्थल हैं।
जहां किसी महान आत्मा के तप से, श्रम से, उसकी त्रिकालदर्शी सोच से वो सूक्ष्म-शक्ति इन स्थानों पर प्रकट हुई और प्रकृति के विराट आंचल में समा गई। जहां आज भी जब हमें अपनी आत्मशक्ति की जरूरत होती है तो इन स्थलों पर जाकर अपनी विलीन आत्म-शक्ति को प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में हमारी इच्छा शक्ति को यहां आत्मशक्ति मिलती है और हमें प्यास लगने पर कुंआ खोदने की जरूरत नहीं होती।

Wednesday, 15 June 2016

ॐ के 11 शारीरिक लाभ:

ॐ के 11 शारीरिक लाभ:

ॐ : ओउम् तीन अक्षरों से बना है..
अ उ म् ।

"अ"  का  अर्थ  है उत्पन्न  होना,
"उ"  का  तात्पर्य  है  उठना,  उड़ना  अर्थात्  विकास,
"म"  का  मतलब  है  मौन  हो  जाना  अर्थात्  "ब्रह्मलीन"  हो  जाना।

ॐ  सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है।
ॐ का उच्चारण शारीरिक लाभ प्रदान करता है।

जानीए
ॐ कैसे है स्वास्थ्यवर्द्धक और अपनाएं आरोग्य के लिए ॐ के उच्चारण का मार्ग...

01. ॐ और थायराॅयडः-
ॐ का उच्‍चारण करने से गले में कंपन पैदा होती है जो थायरायड ग्रंथि पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।

02. ॐ और घबराहटः-
अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ॐ के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं।

03. ॐ और तनावः-
यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।

04. ॐ और खून का प्रवाहः-
यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है।

05. ॐ और पाचनः-
ॐ के उच्चारण से पाचन शक्ति तेज़ होती है।

06. ॐ लाए स्फूर्तिः-
इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।

07. ॐ और थकान:-
थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।

08. ॐ और नींदः-
नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चिंत नींद आएगी।

09. ॐ और फेफड़े:-
कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती आती है।

10. ॐ और रीढ़ की हड्डी:-
ॐ के पहले शब्‍द का उच्‍चारण करने से कंपन पैदा होती है। इन कंपन से रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और इसकी क्षमता बढ़ जाती है।

11. ॐ दूर करे तनावः-
ॐ का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।

आशा  है  आप  इसे  उन  लोगों  तक  भी  जरूर  पहुंचायेगे  जिनसे  आप  प्यार   करते  हैं  और  जिनकी  आपको  फिक्र है ।

।।  पहला  सुख  निरोगी  काया  ।।
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Tuesday, 14 June 2016

एकादशी में चावल वजिर्त क्यों

🌺एकादशी में चावल वजिर्त क्यों ?🌺

🌺एक पौराणिक कथा के अनूसार
माता शक्ति के क्रोध से भागते-भागते भयभीत महर्षि मेधा ने अपने योग बल से शरीर छोड़ दिया और उनकी मेधा पृथ्वी में समा गई। वही मेधा जौ और चावल के रूप में उत्पन्न हुईं । यह घटना एकादशी को घटी थी। इसीलिए जौ और चावल को जीवधारी माना गया है।
🌺 अतः इस दिन चावल खाना महर्षि मेधा के शरीर के छोटे-छोटे मांस के टुकड़े खाने जैसा माना गया है l
🌺 आज भी जौ और चावल को उत्पन्न होने के लिए मिट्टी की भी जरूत नहीं पड़ती। केवल जल का छींटा मारने से ही ये अंकुरित हो जाते हैं। इनको जीव रूप मानते हुए एकादशी को भोजन के रूप में ग्रहण करने से परहेज किया गया है, ताकि सात्विक रूप से विष्णुस्वरुप एकादशी का व्रत संपन्न हो सके।
🌺 एकादशी के विषय में शास्त्र कहते हैं, ‘न विवेकसमो बन्धुर्नैकादश्या: परं व्रतं’ यानी विवेक के सामान कोई बंधु नहीं है और एकादशी से बढ़ कर कोई व्रत नहीं है। पांच ज्ञान इन्द्रियां, पांच कर्म इन्द्रियां और एक मन, इन ग्यारहों को जो साध ले, वह प्राणी एकादशी के समान पवित्र और दिव्य हो जाता है।
🌺एकादशी जगतगुरु विष्णुस्वरुप है, आदिकाल में देवर्षि नारद ने एक हजार वर्ष तक एकादशी का निर्जल व्रत करके नारायण भक्ति प्राप्त की थी। वैष्णव के लिए यह सर्वश्रेष्ठ व्रत है ।🌷👏🏻🙏🏻🌹💐

मित्रता की मिसाल

मित्रता की मिसाल -

दो मित्र थे । वे बड़े ही बहादुर थे उनमे से एक ने अपने बादशाह के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई । बादशाह बड़ा ही कठोर और बेरहम था जब उसे मालूम हुआ तो उसने उस नौजवान को फांसी पर लटका देने का आदेश दे दिया ।

नौजवान ने बादशाह को कहा आप जो कर रहे है वो ठीक है और मैं ख़ुशी ख़ुशी मौत के आगोश में चला जाऊंगा लेकिन आप मुझे थोड़ी मोहलत दीजिये कि मैं गांव जाकर अपने बच्चो से मिल आऊं ।

बादशाह ने कहा नहीं ऐसा नहीं हो सकता मुझे तुम पर भरोसा नहीं है तो उस नौजवान के मित्र ने कहा कि महाराज मैं इसकी जमानत देता हूँ अगर ये लौट कर नहीं आये तो इसकी जगह मुझे फांसी दे दीजियेगा तो बादशाह हैरान रह गया क्योकि अब तक उसने ऐसा कोई आदमी नहीं देखा था तो दूसरो के लिए अपनी जान देने को तैयार हो तो बादशाह ने उसे गांव जाने की सहमति दे दी और उसे छह घंटे का टाइम दिया गया ।

नौजवान चला गया और उसने देखा कि उसे लौटने में पांच घंटे का समय लगेगा और वो आराम से जाकर आ सकता है अपने बच्चो से मिलकर लौटते समय रस्ते में उसका घोडा ठोकर खाकर गिर गया और फिर उठा ही नहीं और उस नौजवान को भी चोट आई और इसी वजह से उसे आने में देरी हो गयी उधर छह घंटे बीत जाने के बाद उसका मित्र खुश हो रहा था और भगवान से प्रार्थना कर रहा था की उसका मित्र नहीं आये ताकि वो अपने दोस्त के काम आ सके ।

मियाद पूरी हो जाने के बाद मित्र को फांसी पर लटकाया जा रहा था कि नौजवान आ पहुंचा और उस से कहा अब तुम घर जाओ और मुझे विदा करो तो मित्र ने कहा यह नहीं हो सकता तुम्हारी मियाद पूरी हो गयी है तो नौजवान ने कहा ये मेरी सज़ा है सो जाहिर है मुझे इसे सहने दो तुम अपने घर जाओ ।

दोनों मित्रो की सज़ा को बादशाह देख रहा था तो उसकी आँखे डबडबा आयीं और उसने दोनों को बुलाकर कहा मेने तुमको माफ़ कर दिया है और तुम्हारी दोस्ती ने मेरे दिल पर गहरा असर डाला है और उसके बाद बादशाह ने कभी किसी पर जुल्म नहीं किया |

श्री हनुमान चालीसा (भावार्थ एवं गूढार्थ सहित).....

                    ॥ श्री हनुमते नम: ॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥ (13)

अर्थ :- श्रीराम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया कि तुम्हारा यश हजार-मुख से सराहनीय है।

गुढार्थ :- जिस प्रकार भगवान श्रीराम और भगवान श्री कृष्ण ने अवतार लेकर इस सृष्टि में आकर इसकी महत्ता बढायी।
उसी प्रकार श्री हनुमानजी ने भक्ति की महत्ता बढाई, इसीलिए ऐसे भगवान के परम भक्त के यश की सारा संसार प्रशंसा करता है।

इतना ही नहीं स्वयं परमात्मा उन्हे अपने हृदय से लगाते हैं, यह भक्ति का अंतिम फल है।

भक्ति का यह आदर्श हनुमानजी हमारे सामने रखते हैं, इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है:-
‘‘सहस बदन तुम्हारे जस गावैं, अस कहि श्रीपति कंठ लगावै।’’

हनुमानजी सीता की खोज करके वापस आते हैं तो राम जी कहते हैं:- ‘हनुमान, तुम्हारे मेरे उपर अगणित उपकार है, ‘‘तुझे क्या दूँ इस जगत में कौनसी चीज तुझे देने जैसी है, कोई भी नहीं, इसीलिए मै तुझे आलिंगन ही देता हूँ।

इसीलिए भगवान राम ने उन्हे कुछ न देते हुए और प्रत्युपकार की भी इच्छा न रखते हुए केवल आलिंगन प्रदान किया है।

इस बात से भगवान राम के अंत:करण में उनको क्या स्थान प्राप्त था यह पता चलता है।

उत्तरकाण्ड श्री राम ने हनुमानजी को ‘पुरुषोत्तम’ की पदवी से विभूषित किया है।

राम जी कहते हैं कि:- 'हनुमान ने ऐसा दुष्कर कार्य किया है कि जिसे लोग मनसे भी नही कर सकते हैं।'

वाल्मीकि रामायण मे लिखा है:-
यो हि भृत्यो नियुक्त: सन् भत्र्रा कर्मणि दुष्करे।
कुर्यात् तदनुरागेण तमाहु: पुरुषोत्तमम्॥

ऐसा कहकर श्रीराम हनुमानजी को पुरुषोत्तम की पदवी देते हैं।

धन्य है हनुमान जी, जिन्होने वानर होते हुए भी प्रभु के स्वमुख से पुरुषोत्तमकी पदवी प्राप्त करके उनके बराबर का स्थान प्राप्त किया है।

जिन्होने प्रभु को जीवन अर्पण करके सार्थकता का अनुभव किया और जो लोग विश्वंभर पर उपकार करने जगत में आये, वे महान हैं।

हनुमानजी की तरह जो ‘नरोत्तम’ बन गये हैं उनको नमस्कार है।

‘नरोत्तम’ कौन है...?

प्रभु को जिसने जीत लिया है वह ‘नरोत्तम’ है।

संसार में आकर जिन्होने प्रभु को जीत लिया है उनको नमस्कार है।

प्रभु को जीतने वाले ये भक्त कितने महान होंगे, उन्होने निष्काम भगवान को सकाम बना दिया।

भगवान निष्काम है, निष्काम भगवान में भी जो कामना खडी करते हैं, वे ‘नरोत्तम’ हैं।

श्री हनुमानजी ऐसे ही नरोत्तम है, इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है:- ‘‘सहस बदन तुम्हरो जस गावै, अस कहि श्रीपति कंठ लगावै।’’

यदि हमें भी प्रभु का आलिंगन चाहिए तो श्री हनुमान जी की तरह भक्ति करनी होगी तथा उनकी भांति ज्ञान, कर्म और भक्ति का जीवन में समन्वय लाना होगा।

ज्ञानी कर्मयोगी भक्त को भगवान प्रत्यक्ष मिलने दौडते है, जिस प्रकार भक्त पुंडलिक को मिलने भगवान स्वत: दौडकर उनके द्वारपर आये।

संत एकनाथ के यहाँ तो जगत् की चिद्घन शक्ति सगुण-साकार होकर घरका काम करती और स्वयं भोजन बनाकर खिलाती थी, वे कितने भग्यशाली होंगे?

संत एकनाथ ने भगवान का अनुपम कार्य कर उनपर जो ऋण चढाया था उससे उऋण होने के लिये ही भगवान ने उनकी चाकरी की।

इस भारत वसुन्धरा में अनेक प्रभु भक्त हुये हैं, परन्तु हनुमानजी भक्त सम्राट हैं।
भगवान राम ने स्वयं उन्हे अपने कंठ से लगाया है ऐसा तुलसीदास जी ने लिखा है।

जय जय सिया राम भक्त हनुमानजी

समुद्र-मन्थन की कथा.


समुद्र-मन्थन की कथा
एक दिन बलि की सभा में बैठे हुए नीति-निपुण देवराज इन्द्र ने बलि को सम्बोधित करके हँसते हुए कहा- ‘वीरवर ! हमारे हाथी-घोड़े आदि नाना प्रकार के बहुत से रत्न तो इस समय तुम्हें प्राप्त होने योग्य है, तत्काल ही समुद्र में गिर पड़े हैं। अत: हम लोगों को समुद्र से उन रत्नों का उद्धार करने के लिये बहुत शीघ्र प्रयत्न करना चाहिये। तुम्हारे कार्य की सिद्धि के लिये समुद्र का मन्थन करना उचित है।’ इन्द्र के इस प्रकार प्रेरणा देने पर बलि ने शीघ्रतापूर्वक पूछा- ‘यह समुद्र-मन्थन किस उपाय से सम्भव होगा?’
इसी समय मेघ के समान गम्भीर स्वर में आकाशवाणी हुई- ‘देवताओ और दैत्यो! तुम क्षीर समुद्र का मन्थन करो। इस कार्य में तुम्हारे बल की वृद्धि होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाओं, फिर देवता और दैत्य मिलकर मन्थन आरम्भ करो।’ यह आकाशवाणी सुनकर सहस्त्रों दैत्य और देवता समुद्र-मन्थन के लिये उद्यत हो सुवर्ण के सदृश कान्तिमान् मन्दराचल के समीप गये। वह पर्वत सीधा, गोलाकार, बहुत मोटा और अत्यन्त प्रकाशमान था। अनेक प्रकार के रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। चन्दन, पारिजात, नागकेशर, जायफल और चम्पा आदि भाँति-भाँति के वृक्षों से वह हरा-भरा दिखायी देता था।
उस महान पर्वत को देखकर सम्पूर्ण देवताओं ने हाथ जोड़कर कहा- ‘दूसरों का उपकार करनेवाले महाशैल मन्दराचल ! हम सब देवता तुमसे कुछ निवेदन करने के लिये यहाँ आये हैं, उसे तुम सुनो।’ उनके यों कहने पर मन्दराचल ने देहधारी पुरुष के रूप में प्रकट होकर कहा- ‘देवगण! आप सब लोग मेरे पास किस कार्य से आये हैं, उसे बताइये।’ तब इन्द्र ने मधुर वाणी में कहा- ‘मन्दराचल! तुम हमारे साथ रहकर एक कार्य में सहायक बनो; हम समुद्र को मथकर उससे अमृत निकालना चाहते हैं, इस कार्य के लिये तुम मथानी बन जाओ।’ मन्दराचल ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और देवकार्य की सिद्धि के लिये देवताओं, दैत्यों तथा विशेषत: इन्द्र से कहा- ‘पुण्यात्मा देवराज! आपने अपने वज्र से मेरे दोनों पंख काट डाले हैं, फिर आप लोगों के कार्य की सिद्धि के लिये वहाँ तक मैं चल कैसे सकता हूँ?’ तब सम्पूर्ण देवताओं और दैत्यों ने उस अनुपम पर्वत को क्षीर समुद्र तक ले जाने की इच्छा से उखाड़ लिया; परंतु वे उसे धारण करने में समर्थ न हो सके। इस प्रकार उनका उद्यम और उत्साह भंग हो गया। वे देवता और दानव सचेत होने पर जगदीश्र्वर भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे- ‘शरणागतवत्सल महाविष्णो! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपने ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है।’
उस समय देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये गरुड़ की पीठ पर बैठे हुए भगवान विष्णु सहसा वहाँ प्रकट हो गये। वे सबको अभय देने वाले हैं। उन्होंने देवताओं और दैत्यों की ओर दृष्टिपात करके खेल-खेल में ही उस महान पर्वत को उठाकर गरुड़ की पीठ पर रख लिया। फिर वे देवताओं और दैत्यों को क्षीर-समुद्र के उत्तर-तट पर ले गये और पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल को समुद्र में डालकर तुरंत वहाँ से चल दिये। तदनन्तर सब देवता दैत्यों को साथ लेकर वासुकि नाग के समीप गये और उनसे भी अपनी प्रार्थना स्वीकार करायी। इस प्रकार मन्दराचल को मथानी और वासुकि-नाग को रस्सी बनाकर देवताओं और दैत्यों ने क्षीर-समुद्र का मन्थन आरम्भ किया। इतने में ही वह पर्वत समुद्र में डूबकर रसातल को जा पहुँचा। तब लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु ने कच्छपरूप धारण करके तत्काल ही मन्दराचल को ऊपर उठा दिया। उस समय यह एक अद्भुत घटना हुई। फिर जब देवता और दैत्यों ने मथानी को घुमाना आरम्भ किया, तब वह पर्वत बिना गुरु के ज्ञान की भाँति कोई सुदृढ़ आधार न होने के कारण इधर-उधर डोलने लगा। यह देख परमात्मा भगवान् विष्णु स्वयं ही मन्दराचल के आधार बन गये और उन्होंने अपनी चारों भुजाओं से मथानी बने हुए उस पर्वत को भली-भाँति पकड़कर उसे सुखपूर्वक घुमाने योग्य बना दिया। तब अत्यन्त बलवान् देवता और दैत्य एकीभूत हो अधिक जोर लगाकर क्षीर-समुद्र का मन्थन करने लगे।
कच्छप रूपधारी भगवान की पीठ जन्म से ही कठोर थी और उस पर घूमने वाला पर्वतश्रेष्ठ मन्दराचल भी वज्रसार की भाँति दृढ़ था। उन दोनों की रगड़ से समुद्र में बड़वानल प्रकट हो गया। साथ ही हालाहल विष उत्पन्न हुआ। उस विष को सबसे पहले नारद जी ने देखा। तब अमित तेजस्वी देवर्षि ने देवताओं को पुकार कर कहा- ‘अदिति कुमारो! अब तुम समुद्र का मन्थन न करो। इस समय सम्पूर्ण उपद्रवों का नाश करने वाले भगवान शिव की प्रार्थना करो। वे परात्पर हैं, परमानन्दस्वरूप हैं तथा योगी पुरुष भी उन्हीं का ध्यान करते हैं।’ देवता अपने स्वार्थसाधन में संलग्न हो समुद्र मंथन रहे थे। वे अपनी ही अभिलाषा में तन्मय होने के कारण
नारद जी की बात नहीं सुन सके। केवल उद्यम का भरोसा करके वे क्षीर-सागर के मन्थन में संलग्न थे। अधिक मन्थन से जो हालाहल विष प्रकट हुआ, वह तीनों लोकों को भस्म कर देनेवाला था। वह प्रौढ़ विष देवताओं का प्राण लेने के लिये उनके समीप आ पहुँ चा और ऊपर–नीचे तथा सम्पूर्ण दिशाओं में फैल गया। समस्त प्राणियों को अपना ग्रास बनाने के लिये प्रकट हुए उस कालकूट विष को देखकर वे सब देवता और दैत्य हाथ में पकड़े हुए नागराज वासुकि को मन्दराचल पर्वतसहित वहीं छोड़ भाग खड़े हुए। उस समय उस लोकसंहारकारी कालकूट विष को भगवान शिव ने स्वयं अपना ग्रास बना लिया। उन्होंने उस विष को निर्मल (निर्दोष) कर दिया। इस प्रकार भगवान शंकर की बड़ी भारी कृपा होने से देवता, असुर, मनुष्य तथा सम्पूर्ण त्रिलोकी की उस समय कालकूट विष से रक्षा हुई।
तदनन्तर भगवान विष्णु के समीप मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर देवताओं ने पुन: समुद्र-मन्थन आरम्भ किया। तब समुद्र से देवकार्य की सिद्धि के लिये अमृतमयी कलाओं से परिपूर्ण चन्द्रदेव प्रकट हुए। सम्पूर्ण देवता, असुर और दानवों ने भगवान चंद्नमा को प्रणाम किया और गर्गाचार्य जी से अपने-अपने चन्द्रबल की यथार्थ रूप से जिज्ञासा की। उस समय गर्गाचार्य जी ने देवताओं से कहा- ‘इस समय तुम सब लोगों का बल ठीक है। तुम्हारे सभी उत्तम ग्रह केंन्द्र स्थान में (लग्न में, चतुर्थ स्थान में, सप्तम स्थान में और दशम स्थान में) हैं। चन्द्रमा से गुरु का योग हुआ है। बुध, सूर्य, शुक्र, शनि और मंगल भी चन्द्रमा से संयुक्त हुए हैं। इसलिये तुम्हारे कार्य की सिद्धि के निमित्त इस समय चन्द्रबल बहुत उत्तम है। यह गोमन्त नामक मुहूर्त है, जो विजय प्रदान करने वाला है।’ महात्मा गर्गजी के इस प्रकार आश्र्वासन देने पर महाबली देवता गर्जना करते हुए बड़े वेग से समुद्र-मन्थन करने लगे।
मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े जोर की आवाज उठ रही थी। इस बार के मन्थन से देवकार्यों की सिद्धि के लिये साक्षात् सुरभि कामधेनु प्रकट हुईं। उन्हें काले, श्वेत, पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएँ घेरे हुए थीं। उस समय ऋषियों ने बड़े हर्ष में भरकर देवताओं और दैत्यों से कामधेनु के लिये याचन की और कहा- ‘आप सब लोग मिलकर भिन्न-भिन्न गोत्रवाले ब्राह्मणों को कामधेनु सहित इन सम्पूर्ण गौओं का दान अवश्य करें।’ ऋषियों के याचना करने पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान् शंकर की प्रसन्नता के लिये वे सब गौएँ दान कर दीं तथा यज्ञ कर्मों में भली-भाँति मन को लगाने वाले उन परम मंगलमय महात्मा ऋषियों ने उन गौओं का दान स्वीकार किया। तत्पश्चात सब लोग बड़े जोश में आकर क्षीरसागर को मथने लगे। तब समुद्र से कल्पवृक्ष, पारिजात दिव्य वृक्ष प्रकट हुए।
उन सबको एकत्र रखकर देवताओं ने पुन: बड़े वेग से समुद्र मन्थन आरम्भ किया। इस बार के मन्थन से रत्नों में सबसे उत्तम रत्न कौस्तुभ प्रकट हुआ, जो सूर्यमण्डल के समान परम कान्तिमान था। वह अपने प्रकाश से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रहा था। देवताओं ने चिन्तामणि को आगे रखकर कौस्तुभ का दर्शन किया और उसे भगवान विष्णु की सेवा में भेंट कर दिया। तदनन्तर, चिन्तामणि को मध्य में रखकर देवताओं और दैत्यों ने पुन: समुद्र को मथना आरम्भ किया। वे सभी बल में बढ़े-चढ़े थे और बार-बार गर्जना कर रहे थे। अब की बार उसे मथे जाते हुए समुद्र से उच्चै:श्रवा नामक अश्र्व प्रकट हुआ। वह समस्त अश्र्वजाति में एक अद्भुत रत्न था। उसके बाद गज जाति में रत्न भूत ऐरावत प्रकट हुआ। उसके साथ श्वेतवर्ण के चौसठ हाथी और थे। ऐरावत के चार दाँत बाहर निकले हुए थे और मस्तक से मद की धारा बह रही थी। इन सबको भी मध्य में स्थापित करके वे सब पुन: समुद्र मथने लगे। उस समय उस समुद्र से मदिरा, भाँग, काकड़ासिंगी, लहसुन, गाजर, अत्यधिक उन्मादकारक धतूर तथा पुष्कर आदि बहुत-सी वस्तुएँक प्रकट हुईं। इन सबको भी समुद्र के किनारे एक स्थान पर रख दिया गया। तत्पश्चात वे श्रेष्ठ देवता और दानव पुन: पहले की ही भाँति समुद्र-मन्थन करने लगे। अब की बार समुद्र से सम्पूर्ण भुवनों की एकमात्र अधीश्वरी द
देवी महालक्ष्मी प्रकट हुईं, कोई योगी पुरुष इन्हीं को ‘वैष्णवी’ कहते हैं। सदा उद्यम में लगे रहने वाले माया के अनुयायी इन्हीं को ‘माया’ के रूप में जानते हैं। जो अनेक प्रकार के सिद्धान्तों को जानने वाले तथा ज्ञानशक्ति से सम्पन्न हैं, वे इन्हीं को भगवान की ‘योगमाया’ कहते हैं। देवताओं ने देखा देवी महालक्ष्मी का रूप परम सुन्दर है। उनके मनोहर मुख पर स्वाभाविक प्रसन्नता विराजमान है। हार और नूपुरों से उनके श्रीअंगो की बड़ी शोभा हो रही है। मस्तक पर छत्र तना हुआ है, दोनों ओर से चँवर डुल रहे हैं; जैसे माता अपने पुत्रों की ओर स्नेह और दुलार भरी दृष्टि से देखती है, उसी प्रकार सती महालक्ष्मी ने देवता, दानव, सिद्ध, चारण और नाग आदि सम्पूर्ण प्राणियों की ओर दृष्टिपात किया। माता महालक्ष्मी की कृपा-दृष्टि पाकर सम्पूर्ण देवता उसी समय श्रीसम्पन्न हो गये। वे तत्काल राज्याधिकारी के शुभ लक्षणों से सम्पन्न दिखायी देने लगे।
तदनन्तर देवी लक्ष्मी ने भगवान मुकुन्द की ओर देखा। उनके श्रीअंग तमाल के समान श्यामवर्ण थे। कपोल और नासिका बड़ी सुन्दर थी। वे परम मनोहर दिव्य शरीर से प्रकाशित हो रहे थे। उनके वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित था। भगवान एक हाथ में कौमोद की गदा शोभा पा रही थी। भगवान् नारायण की उस दिव्य शोभा को देखते ही लक्ष्मी जी आश्चर्यचकित हो उठीं और हाथ में वनमाला ले सहसा हाथी से उतर पड़ीं। वह माला श्रीजी ने अपने ही हाथों बनायी थीं, उसके ऊपर भ्रमर मंडरा रहे थे। देवी ने वह सुन्दर वनमाला परमपुरुष भगवान विष्णु के कण्ठ में पहना दी और स्वयं उनके वाम भाग में जाकर खड़ी हो गयीं। उस शोभाशाली दम्पति का वहाँ दर्शन करके सम्पूर्ण देवता, दैत्य, सिद्ध, अप्सराएँ, किन्नर तथा चारणगण परम आनन्द को प्राप्त हुए।

16 जून को है निर्जला एकादशी

16 जून को है निर्जला एकादशी -----

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को निर्जला एकादशी कहते है। इस एकादशी को भीम एकादशी भी कहा जाता है। इस व्रत मे पानी का पीना वर्जित है, इसिलिये इसे निर्जला एकादशी कहते है। इस दिन सुबह से शाम तक दान-पुण्य का दौर चलता है। निर्जला एकादशी के मौके पर लक्ष्मीनाथ मंदिर परिसर सहित शहर के सभी मंदिरों में धार्मिक अनुष्ठान होते है। तथा निर्जला एकादशी पर धर्मार्थियों द्वारा जगह-जगह सेवा शिविर लगाये जाते है, जिसमें शीतल पेयजल, छाछ, नीबू शिकंजी, फल आदि से लोगों को मनुहार करते है।

निर्जला एकादशी से लाभ :-

जो श्रद्धालु साल की सभी चौबीस एकादशियों का उपवास करने में सक्षम नहीं है। उन्हें केवल निर्जला एकादशी का उपवास करना चाहिए, क्योंकि निर्जला एकादशी का उपवास करने से दूसरी सभी एकादशियों का लाभ मिल जाता हैं।

निर्जला एकादशी से सम्बन्धित पौराणिक कथा के कारण इसे पाण्डव एकादशी और भीमसेनी या भीम एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पाण्डवों में दूसरा भाई भीमसेन खाने-पीने का अत्यधिक शौक़ीन था और अपनी भूख को नियन्त्रित करने में सक्षम नहीं था इसी कारण वह एकादशी व्रत को नही कर पाता था। भीम के अलावा बाकि पाण्डव भाई और द्रौपदी साल की सभी एकादशी व्रतों को पूरी श्रद्धा भक्ति से किया करते थे। भीमसेन अपनी इस लाचारी और कमजोरी को लेकर परेशान था। भीमसेन को लगता था कि वह एकादशी व्रत न करके भगवान विष्णु का अनादर कर रहा है। इस दुविधा से उभरने के लिए भीमसेन महर्षि व्यास के पास गया, तब महर्षि व्यास ने भीमसेन को साल में एक बार निर्जला एकादशी व्रत को करने की सलाह दी और कहा कि निर्जला एकादशी साल की चौबीस एकादशियों के तुल्य है। इसी पौराणिक कथा के बाद निर्जला एकादशी भीमसेनी एकादशी और पाण्डव एकादशी के नाम से प्रसिद्ध हो गयी।

निर्जला एकादशी करने का समय :-

निर्जला एकादशी का व्रत ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष के दौरान किया जाता है। अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार निर्जला एकादशी का व्रत मई अथवा जून के महीने में होता है। साधारणतः निर्जला एकादशी का व्रत गँगा दशहरा के अगले दिन पड़ता है, परन्तु कभी-कभी साल में गँगा दशहरा और निर्जला एकादशी दोनों एक ही दिन पड़ जाते हैं।

एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारणा कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारणा किया जाता है। एकादशी व्रत का पारणा द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारणा सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारणा न करना पाप करने के समान होता है।

एकादशी व्रत का पारणा हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं, उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारणा करने में सक्षम नहीं है, तो उसे मध्यान के बाद पारणा करना चाहिए।

कभी-कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है, तब स्मार्थ-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दुसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं। सन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। जब-जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब-तब दूजी एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन होती हैं।.

कुछ हिन्दू देवियों का रूप विकराल क्यों है?

कुछ हिन्दू देवियों का रूप विकराल क्यों है?
परमात्मा शक्तियों का संतुलन किस प्रकार करते हैं इसका आभास हर बार होता है जब दसमहाविद्या देवियों की छवि का ध्यान करता हूं. माता सती और पार्वती दोनों एक ही हैं. दोनों सर्वांगसुंदरी, अलौकिक ऐश्वर्य. उन्ही एक स्वरूप हैं माता धूमावती. श्वेत वस्त्र, खुले केश, शरीर पर एक भी आभूषण नहीं, कौए के वाहन पर सवार विधवा वेशवाली, सब प्रकार से असौम्य वेश में. दशमहाविद्याओं में माता धूमावती" परम प्रेम की विरह वेदना,त्याग और ममता से भरी भूखी माँ है.

भूख से विकल होकर पार्वतीजी ने शिवजी को ही निगल लिया. विधर्मी तर्क देते हैं- वाह जी गजब! पत्नी ने पति को खा लिया?! मूर्खों को कौन समझाए कि पत्नी ने पति में सारा संसार व्याप्त देखा. जो भी सामग्री उनकी भूख मिटाएगी वह शिव का ही अंश है. भाव को समझो, देखो. हनुमानजी ने सूर्य को निगल लिया था तो क्या इसका अर्थ है कि उनका पेट ऐसा बड़ा था कि सूर्य के बराबर भोजन से पेट भरता था. फिर तो पृथ्वी को ही खा गए होते!

पार्वतीजी ने शिवजी को निगला तो शिवजी के कंठ में रखे हलाहल के प्रभाव उनके शरीर से धूम्रराशि निकलने लगी. शिवजी अपनी शक्ति के बल से पार्वतीजी के शरीर से बाहर आ गए. पार्वतीजी को बड़ा पछतावा होने लगा.

शिवजी बोले- देवी सृष्टि संचालन के लिए व पापियों को दण्डित करने के लिए एक रहस्य स्वरूप की आवश्यकता थी जिसके लिए मैंने यह युक्ति लगाई. आपके द्वारा ऐसी शक्ति उत्पन्न की.

पार्वतीजी ने पूछा- स्वामी पर इस कार्य के लिए मुझे क्यों चुना, मैंने तो अपने स्वामी को निगल जाने का घोर पाप कर डाला. सर्वथा रीतिविरूद्ध है यह.

शिवजी बोले- हे शिवे! इस महाकार्य का सामर्थ्य तीनों लोकों में आपके अतिरिक्त कोई और नहीं रखता. प्रकृति शक्ति को प्रकृति शक्ति ही संतुलित कर सकती है. आपको प्रकट करने के लिए भूख की लीला की गई इसलिए भूखी और असौम्य रूप में वह महाकार्य करो जिसके लिए उत्पन्न किया.

किस चीज की भूख है धूमावती को? जीव को शिवतत्व का ज्ञान प्राप्त कराकर शिव में मिला देना और सबकुछ प्रदान कर देना यही इनकी ममतामयी भूख है. मोह का जो नाश कर दे वही धूमावती हैं. हमारे जीवन में भांति भांति के मोह हैं.

जगदंबा का ही स्वरूप माया है. माया जो मोहती है. माया मातास्वरूप में हैं. भक्त पुत्र की तरह जो भी हठ कर लें सब प्रदान कर देती हैं. भक्त ने ममता का अनुचित लाभ लेना भी शुरू किया. अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए माता की शक्तियों का गलत मंशा से प्रयोग. यहीं से भक्त के मन में बैठी आसुरी प्रवृति प्रचंड होनी आरंभ होती है. 

कई बार हम जब अनुचित हठ कर लेते थे तो माता तरह-तरह के भय भी दिखाती थीं, कुछ दंड भी देती थीं. किसलिए? हमारे उपकार के लिए. दसमहाविद्या देवियों में से कई के स्वरूप के असौम्य होने का संभव है यही कारण हो.

बच्चे को भय भी दिखा जाए ताकि उसके अंदर की आसुरी शक्ति प्रबल न हो. जब मां बच्चे को दंडित करती है तो बाहर से जितनी अप्रिय होती है वास्तव में अंदर से उस समय उसकी ममता सबसे ज्यादा छलक रही होती है. उसे संतुलित करने के लिए चेहरे पर क्रोध के भाव लाने होते हैं.

दसमहाविद्याओं में जो भी देवियां जिनका रूप असौम्य है वे सबसे शीघ्र प्रसन्न होने वाली और भक्तों के शत्रुओं का सबसे तेजी से संहार करने वाली हैं. माता तो जिस रूप में हो कुमाता नहीं होती, पुत्र कुपुत्र हो जाते हैं. कुपुत्रों को राह पर लाकर यथेष्ठ प्रदान करने वाली माता के इस असौम्य ममतामयी स्वरूप का ध्यान करता हूं, वंदन करता हूं l

भगवान के चरणों में या मंदिरों में जो हम धन चढाते हैं ! क्या भगवान उसे स्वीकार करते हैं

श्रीहरिः॥
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भगवान के चरणों में या मंदिरों में जो हम धन चढाते हैं !
क्या भगवान उसे स्वीकार करते हैं ?
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एक भक्त की कथा प्रस्तुत कर रहा हूं ।
जिससे हम यह जान सकेंगे ही हमें अपने धन का उपयोग कहां करना चाहिए ,
कि श्री ठाकुर जी उस भेट को स्वीकार कर सकें ।
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एक सेठ के पास एक व्यक्ति काम करता था ।
सेठ उस व्यक्ति पर बहुत विश्वास करता था जो भी जरुरी काम हो वह सेठ हमेशा उसी व्यक्ति से कहता था ,
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वो व्यक्ति भगवान का बहुत बड़ा भक्त था वह सदा भगवान के चिंतन भजन कीर्तन सिमरन सत्संग आदि का लाभ लेता रहता था ।
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एक दिन उस वक्त ने सेठ से श्री जगन्नाथ धाम यात्रा करने के लिए कुछ दिन की छुट्टी मांगी सेठ ने उसे छुट्टी देते हुए कहा भाई मैं तो हूं संसारी आदमी हमेशा व्यापार के काम में व्यस्त रहता हूं जिसके कारण कभी तीर्थ गमन का लाभ नहीं ले पाता ।
तुम जा ही रहे हो तो यह लो 100 रुपए मेरी ओर से इससे श्री जगन्नाथ प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना । भक्त सेठ से सौ रुपए लेकर श्री जगन्नाथ धाम यात्रा पर निकल गया .
कई दिन की पैदल यात्रा करने के बाद वह श्री जगन्नाथ पुरी पहुंचा ।
मंदिर की ओर प्रस्थान करते समय उसने रास्ते में देखा कि बहुत सारे संत , भक्त जन, वैष्णव जन, हरि नाम संकीर्तन बड़ी मस्ती में कर रहे हैं ।
सभी की आंखों से अश्रु धारा बह रही है ।
जोर-जोर से हरि बोल, हरि बोल गूंज रहा है ।
संकीर्तन में बहुत आनंद आ रहा था ।
भक्त भी नहीं रुक कर हरिनाम संकीर्तन का आनंद लेने लगा ।
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फिर उसने देखा कि संकीर्तन करने वाले भक्तजन इतनी देर से संकीर्तन करने के कारण उनके होंठ सूखे हुए हैं वह दिखने में कुछ भूखे ही प्रतीत हो रहे थे उसने सोचा क्यों ना सेठ के सौ रुपए से इन भक्तों को भोजन करा दूँ।
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उसने उन सभी को उस सो रुपए में से भोजन की व्यवस्था कर दी सबको भोजन कराने के बाद उसे भोजन व्यवस्था में उसे फूल 98 रुपए खर्च करने पड़े ।
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उसके पास दो रुपए बच गए उसने सोचा चलो अच्छा हुआ दो रुपए जगन्नाथ जी के चरणों में सेठ के नाम से चढ़ा दूंगा ।
जब सेठ पूछेगा तो मैं कहूंगा वह पैसे चढ़ा दिए ।
सेठ यह नहीं कहेगा 100 रुपए चढ़ाए ।
सेठ पूछेगा पैसे चढ़ा दीजिए।
मैं बोल दूंगा कि , पैसे चढ़ा दिए ।
झूठ भी नहीं होगा और काम भी हो जाएगा ।
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वह भक्त श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिए मंदिर में प्रवेश किया श्री जगन्नाथ जी की छवि को निहारते हुए हुए अपने हृदय में उनको विराजमान कराया ।
अंत में उसने सेठ के दो रुपए श्री जगन्नाथ जी के चरणो में चढ़ा दिए ।
और बोला यह दो रुपए सेठ ने भेजे हैं ।
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उसी रात सेठ के पास स्वप्न में श्री जगन्नाथ जी आए और बोले सेठ तुम्हारे 98 रुपए मुझे मिल गए हैं यह कहकर श्री जगन्नाथ जी अंतर्ध्यान हो गए ।
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सेठ सोचने लगा मेरा नौकर बड़ा ईमानदार है ,पर अचानक उसे क्या जरुरत पड़ गई थी वह दो रुपए भगवान को कम चढ़ाया? उसने दो रुपए का क्या खा लिया ? उसे ऐसी क्या जरूरत पड़ी ? ऐसा विचार सेठ करता रहा ।
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काफी दिन बीतने के बाद भक्त वापस गांव आया और सेठ के पास पहुंचा।
सेठ ने कहा कि मेरे पैसे जगन्नाथ जी को चढ़ा दी ?
भक्त बोला हां मैंने पैसे चढ़ा दिए ।
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सेठ ने कहा पर तुमने 98 रुपए क्यों चढ़ाए दो रुपए किस काम में प्रयोग किए
तब भक्त ने सारी बात बताई की उसने 98 रुपए से संतो को भोजन करा दिया था ।
और ठाकुर जी को सिर्फ दो रुपए चढ़ाये थे ।
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सेठ बड़ा खुश हुआ वह भक्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला आप धन्य हो आपकी वजह से मुझे श्री जगन्नाथ जी के दर्शन नहीं बैठे-बैठे हो गए।
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भक्तमाल की कथा कहते हुए, श्री भक्तमाली बिहारी दास जी महाराज कहते हैं कि भगवान को आपके धन की कोई आवश्यकता नहीं है ।
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भगवान को वह 98 रुपए स्वीकार है जो उनके भक्तों की सेवा में खर्च किए गए और उस दो रुपए की कोई महत्व नहीं है जो उनके चरणों में नगद चढ़ाए गए ।
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इसलिए जहां तक हो सके भक्तों का सम्मान कीजिए ,
उनकी सेवा कीजिए उन्हें कोई आवश्यकता हो तो उसको पूरा कीजिए ।
भक्तों की सेवा करने से भगवान के पास आपका नाम रजिस्टर हो जाता है।
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हमने बहुत सी भक्तों की कथाएं पढ़ी सुनी और आत्मसात कि हैं ।
अंत में यही निष्कर्ष निकला है कि जो भगवान के भक्तों की सेवा करता है भगवान के भक्तों की मदद करता है श्री ठाकुर जी उसे पहले दर्शन देते हैं ।
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इस कथा में भी भक्त के मालिक सेठ को श्री जगन्नाथ जी ने स्वप्न में दर्शन दिया है .
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बोलिए भक्त और भगवान की जय