Saturday, 26 September 2015

घर में शंख रखने और बजाने के ये हैं 11 फायदे...

पूजा-पाठ में शंख बजाने का चलन युगों-युगों से है. देश के कई भागों में लोग शंख को पूजाघर में रखते हैं और इसे नियमित रूप से बजाते हैं.जो न केवल आध्यात्मिक रूप से, बल्कि कई दूसरे तरह से भी फायदेमंद हैं. शंख रखने, बजाने व इसके जल का उचित इस्तेमाल करने से कई तरह के लाभ होते हैं. कई फायदे तो सीधे तौर पर सेहत से जुड़े हैं.

शंख की पूजा इस मंत्र के साथ की जाती है.
त्वं पुरा सागरोत्पन्न:विष्णुनाविघृत:करे देवैश्चपूजित:
सर्वथैपाञ्चजन्यनमोऽस्तुते।
1. जिस घर में शंख होता है, वहां लक्ष्मी का वास होता है. धार्मिक ग्रंथों में शंख को लक्ष्मी का भाई बताया गया है, क्योंकि लक्ष्मी की तरह शंख भी सागर से ही उत्पन्न हुआ है. शंख की गिनती समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों में होती है.
2. शंख को इसलिए भी शुभ माना गया है, क्योंकि माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु, दोनों ही अपने हाथों में इसे धारण करते हैं.
3. पूजा-पाठ में शंख बजाने से वातावरण पवित्र होता है. जहां तक इसकी आवाज जाती है, इसे सुनकर लोगों के मन में सकारात्मक विचार पैदा होते हैं. अच्छे विचारों का फल भी स्वाभाविक रूप से बेहतर ही होता है.
4. शंख के जल से शिव, लक्ष्मी आदि का अभिषेक करने से ईश्वर प्रसन्न होते हैं और उनकी कृपा प्राप्त होती है.
5. ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि शंख में जल रखने और इसे छिड़कने से वातावरण शुद्ध होता है.
6. शंख की आवाज लोगों को पूजा-अर्चना के लिए प्रेरित करती है. ऐसी मान्यता है कि शंख की पूजा से कामनाएं पूरी होती हैं. इससे दुष्ट आत्माएं पास नहीं फटकती हैं.
7. वैज्ञानिकों का मानना है कि शंख की आवाज से वातावरण में मौजूद कई तरह के जीवाणुओं-कीटाणुओं का नाश हो जाता है. कई टेस्ट से इस तरह के नतीजे मिले हैं.
8. आयुर्वेद के मुताबिक, शंखोदक के भस्म के उपयोग से पेट की बीमारियां, पथरी, पीलिया आदि कई तरह की बीमारियां दूर होती हैं. हालांकि इसका उपयोग एक्सपर्ट वैद्य की सलाह से ही किया जाना चाहिए.
9. शंख बजाने से फेफड़े का व्यायाम होता है. पुराणों के जिक्र मिलता है कि अगर श्वास का रोगी नियमित तौर पर शंख बजाए, तो वह बीमारी से मुक्त हो सकता है.
10. शंख में रखे पानी का सेवन करने से हड्डियां मजबूत होती हैं. यह दांतों के लिए भी लाभदायक है. शंख में कैल्शियम, फास्फोरस व गंधक के गुण होने की वजह से यह फायदेमंद है.
11. वास्तुशास्त्र के मुताबिक भी शंख में ऐसे कई गुण होते हैं, जिससे घर में पॉजिटिव एनर्जी आती है. शंख की आवाज से 'सोई हुई भूमि' जाग्रत होकर शुभ फल देती है.

गंगा में विसर्जित अस्थियां आखिर जाती कहां हैं.? बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख अवश्य पढ़े और शेयर करें..!


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पतितपावनी गंगा को देव नदी कहा जाता है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार गंगा स्वर्ग से धरती पर आई है। मान्यता है कि गंगा श्री हरि विष्णु के चरणों से निकली है और भगवान शिव की जटाओं में आकर बसी है।
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श्री हरि और भगवान शिव से घनिष्ठ संबंध होने पर गंगा को पतित पाविनी कहा जाता है। मान्यता है कि गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सभी पापों का नाश हो जाता है।
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एक दिन देवी गंगा श्री हरि से मिलने बैकुण्ठ धाम गई और उन्हें जाकर बोली," प्रभु ! मेरे जल में स्नान करने से सभी के पाप नष्ट हो जाते हैं लेकिन मैं इतने पापों का बोझ कैसे उठाऊंगी? मेरे में जो पाप समाएंगे उन्हें कैसे समाप्त करूंगी?"
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इस पर श्री हरि बोले,"गंगा! जब साधु, संत, वैष्णव आ कर आप में स्नान करेंगे तो आप के सभी पाप घुल जाएंगे।"
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गंगा नदी इतनी पवित्र है की प्रत्येक हिंदू की अंतिम
इच्छा होती है उसकी अस्थियों का विसर्जन गंगा में ही
किया जाए लेकिन यह अस्थियां जाती कहां हैं?
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इसका उत्तर तो वैज्ञानिक भी नहीं दे पाए क्योंकि असंख्य मात्रा में अस्थियों का विसर्जन करने के बाद भी गंगा जल पवित्र एवं पावन है। गंगा सागर तक खोज करने के बाद भी इस प्रश्न का पार नहीं पाया जा सका।
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सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की शांति के लिए मृत व्यक्ति की अस्थि को गंगा में विसर्जन करना उत्तम माना गया है। यह अस्थियांं सीधे श्री हरि के चरणों में बैकुण्ठ जाती हैं।
जिस व्यक्ति का अंत समय गंगा के समीप आता है उसे
मरणोपरांत मुक्ति मिलती है। इन बातों से गंगा के प्रति हिन्दूओं की आस्था तो स्वभाविक है।
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वैज्ञानिक दृष्टि से गंगा जल में पारा अर्थात (मर्करी)
विद्यमान होता है जिससे हड्डियों में कैल्सियम और
फोस्फोरस पानी में घुल जाता है। जो जलजन्तुओं के लिए एक पौष्टिक आहार है। वाइग्निक दृष्टि से हड्डियों में गंधक (सल्फर) विद्यमान होता है जो पारे के साथ मिलकर पारद का निर्माण होता है। इसके साथ-साथ यह दोनों मिलकर मरकरी सल्फाइड साल्ट का निर्माण करते हैं। हड्डियों में बचा शेष कैल्शियम, पानी को स्वच्छ रखने का काम करता है। धार्मिक दृष्टि से पारद शिव का प्रतीक है और गंधक शक्ति का प्रतीक है। सभी जीव अंततःशिव और शक्ति में ही विलीन हो जाते हैं।......
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पाप कहा तक

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पाप कहां कहां तक
एक बार एक ऋषि ने सोचा कि लोग गंगा में पाप धोने जाते है,
तो इसका मतलब हुआ कि सारे पाप गंगा में समा गए और गंगा भी पापी हो गयी .
अब यह जानने के लिए तपस्या की, कि पाप कहाँ जाता है ?
तपस्या करने के फलस्वरूप देवता प्रकट हुए , ऋषि ने पूछा कि
भगवन जो पाप गंगा में धोया जाता है वह पाप कहाँ जाता है ?
भगवन ने कहा कि चलो गंगा से ही पूछते है , दोनों लोग गंगा के पास गए और
कहा कि , हे गंगे ! जो लोग तुम्हारे यहाँ पाप धोते है तो इसका मतलब आप भी पापी हुई .
गंगा ने कहा मैं क्यों पापी हुई , मैं तो सारे पापों को ले जाकर समुद्र को अर्पित कर देती हूँ ,
अब वे लोग समुद्र के पास गए , हे सागर ! गंगा जो पाप आपको अर्पित कर देती है तो इसका मतलब आप भी पापी हुए . समुद्र ने कहा मैं क्यों पापी हुआ , मैं तो सारे पापों को लेकर भाप बना कर बादल बना देता हूँ , अब वे लोग बादल के पास गए,
हे बादलो ! समुद्र जो पापों को भाप बनाकर बादल बना देते है ,
तो इसका मतलब आप पापी हुए . बादलों ने कहा मैं क्यों पापी हुआ ,
मैं तो सारे पापों को वापस पानी बरसा कर धरती पर भेज देता हूँ , जिससे अन्न उपजता है , जिसको मानव खाता है . उस अन्न में जो अन्न जिस मानसिक स्थिति से उगाया जाता है और जिस वृत्ति से प्राप्त किया जाता है , जिस मानसिक अवस्था में खाया जाता है ,
उसी अनुसार मानव की मानसिकता बनती है
शायद इसीलिये कहते हैं ..” जैसा खाए अन्न, वैसा बनता मन ”
अन्न को जिस वृत्ति ( कमाई ) से प्राप्त किया जाता है
और जिस मानसिक अवस्था में खाया जाता है
वैसे ही विचार मानव के बन जाते है।
इसीलिये सदैव भोजन शांत अवस्था में पूर्ण रूचि के साथ
करना चाहिए , और कम से कम अन्न जिस धन से
खरीदा जाए वह धन भी श्रम का होना चाहिए।

Friday, 25 September 2015

श्राद्ध करते समय ध्यान रखने योग्य 26 बातें

धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है।

पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।

श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।
श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं। आज हम आपको श्राद्ध से जुड़ी कुछ विशेष बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं-

1- श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं। दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।

2- श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।

3- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।

4- ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रहकर भोजन करें।

5- जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पहने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।

6- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है।

7- श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं।

8- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है।

9- चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।

10- जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।

11- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।

12- शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग)में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।

13- श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।

14- रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।

15- श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है।

16- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

17- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

18- चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

19- भविष्य पुराण के अनुसार श्राद्ध 12 प्रकार के होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
1- नित्य, 2- नैमित्तिक, 3- काम्य, 4- वृद्धि, 5- सपिण्डन, 6- पार्वण, 7- गोष्ठी, 8- शुद्धर्थ, 9- कर्मांग, 10- दैविक, 11- यात्रार्थ, 12- पुष्टयर्थ

20- श्राद्ध के प्रमुख अंग इस प्रकार हैं-

तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है।

भोजन व पिण्ड दान- पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है। श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं।

वस्त्रदान- वस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है।

दक्षिणा दान- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता।

21 - श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें। श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।

22- पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।

23- तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें। इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।

24- कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।

25- ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं। ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।

26- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडों( एक ही परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए । एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है

गजानन को नहीं लगता पंचक दोष

:मंगल मूर्ति भगवान श्री गणेश की आराधना का महापर्व हर कोई भक्तिभाव के साथ धूम-धाम से मना रहा है। सभी लोग प्रथम पूज्य श्री गणेश की पूजा-अर्चना कर परिवार की विघ्न-बाधाओं को दूर करने एवं सुख-सौभाग्य की प्राप्ति की कामना कर रहे हैं। चौतरफा गणपति के जयकारों की ही गूंज सुनाई दे रही है। गणेशोत्सव में खुशियों के बीच लोगों के मन में गणपति विसर्जन एवं पंचक भ्रम को लेकर असमंजस की स्थिति बन गई है। 

अनंत चतुर्दशी के बाद पितृपक्ष प्रारंभ हो जाता है और पितृपक्ष में गणेश प्रतिमा विसर्जन पूर्णत: निषिद्ध है, क्योंकि पितृपक्ष में विसर्जन शास्त्रों में दोष माना गया है। इससे घर में दरिद्रता का वास होने के साथ बुद्धि नष्ट हो जाती है।

गणेश विसर्जन के लिए अनंत चतुर्दशी की तिथि निर्धारित है अत: इसी दिन गणेश प्रतिमा विसर्जित की जाना चाहिए।  कुछ लोग पंचक दोष मानकर या तो अनंत चतुर्दशी से पहले या बाद में शास्त्रों के नियमों के विरुद्ध गणेश विसर्जन करते हैं, जबकि पंचकों का प्रभाव किसी भी रूप में गणेश विसर्जन पर नहीं पड़ता। अत: हर हाल में अनंत चतुर्दशी को ही गणेश विसर्जन करना चाहिए।
भगवान गणेश या किसी भी देवी-देवता की पूजन में पंचकों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लोग भ्रम को छोड़कर अनंत चतुर्दशी को पूजन-हवन कर गणपति का विसर्जन करें।

विसर्जन तो पूजन की प्रक्रिया है।  पूजन, यज्ञ आदि पंचक के प्रभाव से मुक्त होते हैं। विसर्जन में पंचक के प्रभाव की धारणा गलत है, यह दूर होनी चाहिए।

अनंत चतुर्दशी रविवार को  है, इसलिए रविवार को दिन में कभी भी पूजन, हवन आदि कर विसर्जन किया जा सकता है।

इन कार्यों में लगता है दोष :-

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मृत्यु होने पर शव का अग्नि संस्कार, दक्षिण दिशा में यात्रा, काष्ठ संचयन-लकड़ी काटना व एकत्रीकरण, तृण तोड़ना व एकत्रीकरण जैसे कार्यों को पंचक में करने से मना किया गया है। जबकि शुभ कार्यों खास तौर पर देव पूजन में पंचक का विचार नहीं किया जाता। पंचक में भगवान श्रीगणेश सहित अन्य किसी देवता की प्रतिमा का विसर्जन अशुभ नहीं माना गया है।

गणपति से जुड़े मोरया नाम की कथा


गणपति बप्पा से जुड़े मोरया नाम के पीछे गणपति जी का मयूरेश्वर स्वरुप माना जाता है।

गणेश-पुराण के अनुसार सिंधु नामक दानव के अत्याचार से बचने हेतु देवगणों ने गणपति जी का आह्वान किया। सिंधु का संहार करने के लिए गणेश जी ने मयूर को अपना वाहन चुना और छह भुजाओं वाला अवतार लिया।

इस अवतार की पूजा भक्त गणपति बप्पा मोरया के जयकारे के साथ करते हैं।

क्यों किया जाता है गणपति विसर्जन?

गणपति बप्पा मोरया, मंगलमूर्ति मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ इस नारे के साथ देश में जगह-जगह गणपति की मूर्ति विसर्जित की जाती है लेकिन क्या आप जानते हैं कि धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से अगले 10 दिन तक गणपति को वेद व्यास जी ने भागवत कथा सुनाई थी।

इस कथा को गणपति जी ने अपने दांत से लिखा था। दस दिन तक लगातार कथा सुनाने के बाद वेद व्यास जी ने जब आंखें खोली तो पाया कि लगातार लिखते-लिखते गणेश जी का तापमान बढ़ गया है।

वेद व्यास जी ने फौरन गणेश जी को पास के कुंड में ले जाकर ठंडा किया। इसीलिए भाद्र शुक्ल चतुर्थी को गणेश स्थापना की जाती है। और भाद्र शुक्ल चतुर्दशी यानी अनंत चतुर्दशी को शीतल जल में विसर्जन किया जाता है।

कैसे होता है गणपति विसर्जन?

भगवान गणपति जल तत्व के अधिपति माने जाते हैं। इसी कारण अनंत चतुर्दशी को गणपति पूजा के बाद ही मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। शास्त्रों के मुताबिक मिटटी की बनी गणेश जी की मूर्तियां का जल में विसर्जन अनिवार्य है। इसके लिए घर में ही पवित्र पात्र में गंगाजल की बूंदें और शुद्ध जल मिलाकर मूर्ति का विसर्जन किया जा सकता है। हालांकि बड़ी मूर्तियों को समुद्र और नदी में विसर्जित करने की परंपरा रही है

गणपति की पूजा की विधि क्या है?

शास्त्रों के अनुसार गणपति विसर्जन से पहले गणपति की विधिवत पूजा की जानी चाहिए। विसर्जन से पूर्व स्थापित गणपतिजी की मूर्ति का विधिवत षोड़शोपचार पूजन और आरती की जाती है।

पूजा विधि के अनुसार पूजा की शुरुआत गणपतिजी की मूर्ति पर सिंदूर चढ़ाने के साथ होती है। इसके बाद 21 लड्डुओं का भोग लगाने की परंपरा है।

इनमें से 5 लड्डू मूर्ति के पास चढ़ाए जाते हैं, पांच को दान किया जाता है और बाकी लड्डुओं को प्रसाद के रूप में बांट दिया जाता है।

इसके बाद गणेश जी को ॐ वं वक्रतुण्डाय नम: मंत्र के साथ 21 हरे दूर्वा का चढ़ावा चढ़ाया जाता है।

फिर, गणपति की मूर्ति पर केसरिया चंदन, अक्षत, दूर्वा अर्पित कर कपूर जलाकर पूजा और आरती की जाती है।

फिर मूर्ति को मंत्रोच्चार के साथ मूर्ति विसर्जित कर दिया जाता है।

घर में कैसे स्थापित करें गणपति की मूर्ति?

भक्त विसर्जन के लिए ही नहीं घर के मंदिर में पूजा के लिए भी गणपति की मूर्ति रखते हैं, लेकिन कुछ बातों का ख्याल रखना जरूरी है।

शास्त्रों के मुताबिक गणेश प्रतिमा का मुंह दक्षिण दिशा की तरफ नहीं होना चाहिए।

ध्यान रखना चाहिए कि विघ्नहर्ता की मूर्ति अथवा चित्र में उनके बाएं हाथ की ओर सूंड घुमी हुई हो।

दाएं हाथ की ओर घूमी हुई सूंड वाले गणेश जी हठी होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि दाएं सूंड वाले गणपति देर से भक्तों पर प्रसन्न होते हैं।

लाल बाग के राजा की कहानी

हर साल सबसे ज्यादा चर्चा मुंबई के गणेश उत्सव की होती है, और कहा जाता है कि मुंबई में भी सबसे ज्यादा श्रद्धालु लाल बाग के राजा के पंडाल में जुटते हैं।

दरअसल, श्रद्धालुओं का विश्वास है कि लाल बाग के राजा के दर्शन भर से मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है। जानते हैं कि इस विश्वास के पीछे क्या है कहानी।

महाराष्ट्र और खासकर मुंबई में मनाया जाने वाला गणपति उत्सव पूरे देश में प्रसिद्ध है। मुंबई में गणपति उत्सव धार्मिक ही नहीं बल्कि सामाजिक उत्सव की शक्ल ले चुका है। जगह-जगह गणपति की मूर्तियां स्थापित की जाती हैं।

गणपति के भक्त घरों में भी भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणपति की मूर्ति की स्थापना करते हैं और भाद्रपद चतुर्दशी पर बप्पा को विसर्जित कर आते हैं।

लाल बाग के राजा मन्नतों के राजा कैसे बन गए, इसकी बड़ी ही दिलचस्प कहानी है।

लोग बताते हैं कि एक जमाने में लाल बाग के व्यापारियों का कारोबार घाटे में चलता था। व्यापारी चाहते थे कि लालबाग के एक खुली जगह पर भी बाजार लगने लगे। कहते हैं इसी इच्छा के साथ कुछ व्यापारियों ने लाल बाग के राजा के पंडाल की स्थापना की थी।

लालबाग के राजा की मूर्ति स्थापित हो जाने के बाद व्यापारियों की मनोकामना पूरी होने में वक्त नहीं लगा।

मनोकामना पूरी होने से कुछ ऐसा ही खास रिश्ता जबलपुर के ग्वारीघाट के श्री सिद्ध गणेश मंदिर से भी जुड़ा है। इस मंदिर में बप्पा के भक्त न सिर्फ पूजा अर्चना करते हैं बल्कि बाकायदा अर्जी लगाते हैं। यहां एक साल में 10 हजार से अधिक अर्जियां गणपति के दरबार में आती हैं।

श्री सिद्ध गणेश मंदिर की कथा

सिद्ध गणेश की कथा रामायण से जुड़ी हुई है। माना जाता है कि सीता स्वंयवर के वक्त सीता जी ने श्रीराम को पति के रूप में पाने के लिए गणेश जी के दरबार में अर्जी लगाई थी।

स्वंयवर में श्री राम ने उस शिवधनुष को तोड़ दिया, जिसे बड़े-बड़े महाबलि भी नहीं तोड़ सके थे। सीता जी की मनोकामना पूरी हो गई। ग्वारीघाट में गणपति के भक्त आज भी उनकी मूर्तियां स्थापित करते हैं और अगले बरस फिर से आ की मनोकामना के साथ मूर्ति विसर्जित करते हैं।