Tuesday, 5 January 2016

आज के कलयुग मे यह सारी बाते सच साबित हो रही है ।

पाण्डवो का अज्ञातवाश समाप्त होने मे कुछ समय शेष रह गया था।

पाँचो पाण्डव एवं द्रोपदी जंगल मे छूपने का स्थान ढूढं रहे थे,

उधर शनिदेव की आकाश मंडल से पाण्डवों पर नजर पडी शनिदेव के मन मे विचार आया कि इन सब मे बुधिमान कौन है परिक्षा ली जाय।

देव ने एक माया का महल बनाया कई योजन दूरी मे उस महल के चार कोने थे, पूरब, पश्चिम, उतर, दक्षिन।

अचानक भीम की नजर महल पर पडी
और वो आकर्सित हो गया ,

भीम, यधिष्ठिर से बोला-भैया मुझे महल देखना है भाई ने कहा जाओ ।

भीम महल के द्वार पर पहुँचा वहाँ शनिदेव दरबान के रूप मे खड़े थे,

भीम बोला- मुझे महल देखना है!

शनिदेव ने कहा-महल की कुछ शर्त है

1-शर्त महल मे चार कोने आप एक ही कोना देख सकते है।
2-शर्त महल मे जो देखोगे उसकी सार सहित व्याख्या करोगे।
3-अगर व्याख्या नही कर सके तो कैद कर लिए जावोगे।

भीम ने कहा- मै स्वीकार करता हूँ ऐसा ही होगा

और वह महल के पूर्व क्षोर की और गया

वहां जाकर उसने अधभूत पशु पक्षी और फुलों एवं फलों से लदै वृक्षो का नजारा किया,

आगे जाकर देखता है कि तीन कूऐ है अगल-बगल मे छोटे कूऐ और बीच मे एक बडा कुआ।

बीच वाला बडे कुए मे पानी का उफान आता है और दोनो छोटे खाली कुओ को पानी से भर दता है। फिर कुछ देर बाद दोनो छोटे कुओ मे उफान आता है तो खाली पडे बडे कुऐ का पानी आधा रह जाता है इस क्रिया को भीम कई बार देखता है पर समझ नही पाता और लौट कर दरबान के पास आता है।

दरबान -क्या देखा आपने?

भीम- महाशय मैने पेड पौधे पशु पक्षी देखा वो मैने पहले कभी नही देखा था जो अजीब थे। एकबात समझ मे नही आई छोटे कुऐ पानी से भर जाते है बडा क्यो नही भर पाता ये समझ मे नही आया।

दरबान बोला आप शर्त के अनुसार बंदी हो गये है और बंदी घर मे बैठा दिया।

अर्जुन आया बोला- मुझे महल देखना है, दरबान ने शर्त बतादी और अर्जुन पश्चिम वाले क्षोर की तरफ चला गया।

आगे जाकर अर्जुन क्या देखता है। एक खेत मे दो फसल उग रही थी एक तरफ बाजरे की फसल दुसरी तरफ मक्का की फसल ।

बाजरे के पौधे से मक्का निकल रही तथा
मक्का के पौधे से बाजरी निकल रही अजीब लगा कुछ समझ नही आया वापिस द्वार पर आ गया।

दरबान ने पुछा क्या देखा,

अर्जुन बोला महाशय सब कुछ देखा पर बाजरा और मक्का की बात समझ मे नही आई।

देव ने कहा शर्त के अनुसार आप बंदी है ।

नकुल आया बोला मुझे महल देखना है

फिर वह उतर दिशा की और गया वहाँ उसने देखा कि बहुत सारी सफेद गायें जब उनको भूख लगती है तो अपनी छोटी बाछियों का दुध पीती है उसके कुछ समझ नही आया द्वार पर आया

देव ने पुछा क्या देखा?

नकुल बोला महाशय गाय बाछियों का दुध पिती है यह समझ नही आया तब उसे भी बंदी बना लिया।

सहदेव आया बोला मुझे महल देखना है और वह दक्षिण दिशा की और गया अंतिम कोना देखने के लिए क्या दे खता है वहां पर एक सोने की बडी शिला एक चांदी के सिक्के पर टिकी हुई डगमग डौले पर गिरे नही छूने पर भी वैसे ही रहती है समझ नही आया वह वापिस द्वार पर आ गया और बोला सोने की शिला की बात समझ मे नही आई तब वह भी बंदी हो गया।

चारों भाई बहुत देर से नही आये तब युधिष्ठिर को चिंता हुई वह भी द्रोपदी सहित महल मे गये।

भाईयो के लिए पूछा तब दरबान ने बताया वो शर्त अनुसार बंदी है।

युधिष्ठिर बोला भीम तुमने क्या देखा ?

भीम ने कुऐ के बारे मे बताया

तब युधिष्ठिर ने कहा-यह कलियुग मे होने वाला है एक बाप दो बेटों का पेट तो भर देगा परन्तु दो बेटे मिलकर एक बाप का पेट नही भर पायागें।

भीम को छोड दिया।

अर्जुन से पुछा तुमने क्या देखा ??

उसने फसल के बारे मे बताया

युधिष्ठिर ने कहा- यह भी कलियुग मे होने वाला है वंश परिवर्तन अर्थात ब्राहमन के घर बनिये की लडकी और बनिये के घर शुद्र की लडकी ब्याही जायेगी।

अर्जुन भी छूट गया।

नकुल से पूछा तुमने क्या देखा तब उसने गाय का व्र्तान्त बताया

तब युधिष्ठिर ने कहा-कलियुग मे माताऐं अपनी बेटियों के घर मे पलेगी बेटी का दाना खायेगी और बेटे सेवा नही करेंगे ।

तब नकुल भी छूट गया।

सहदेव से पूछा तुमने क्या देखा, उसने सोने की शिला का वर्तान्त बताया,

तब युधिष्ठिर बोले-कलियुग मे पाप धर्म को दबाता रहेगा परन्तु धर्म फिर भी जिदां रहेगा खत्म नही होगा।।

आज के कलयुग मे यह सारी बाते सच साबित हो रही है ।।

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भक्ति सागर

ॐ ब‌िहारी जी की ख‌िचड़ी कर गई कमाल ॐ

साध्वी कर्माबाई बांके बिहारी को बालभाव से भजती थीं। भाव भक्ति के आवेश में वह बिहारी जी से रोज बातें किया करती थीं। एक दिन उसने कहा, मैं आपको अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाना चाहती हूं। बिहारी जी ने कहा, ठीक है। अगले दिन कर्माबाई ने खिचड़ी बनाई और बिहारी जी को भोग लगाया। बिहारी जी को कर्मा की बनाई खिचड़ी इतनी अच्छी लगी कि वह रोज आने लगे। कर्माबाई भी रोज सुबह उठकर सबसे पहले खिचड़ी बनातीं।

एक बार कोई संत कर्माबाई के पास आए। उन्होंने देखा, तो बोले, आप सुबह उठते ही खिचड़ी क्यों बनाती हैं? न नहाया, न रसोई साफ की। अगले दिन कर्माबाई ने वैसा ही किया। जैसे ही सुबह हुई, भगवान आए और बोले, मां खिचड़ी लाओ। कर्माबाई ने कहा, अभी मैं स्नान कर रही हूं, थोड़ा रुको! थोड़ी देर बाद भगवान ने आवाज लगाई, जल्दी कर मां, मंदिर के पट खुल जाएंगे, मुझे जाना है।

मगर कर्मा ने संत के बताए अनुसार स्नान-ध्यान किया, तब खिचड़ी बनाई। भगवान ने जल्दी-जल्दी खिचड़ी खाई और बिना पानी पिए ही निकल गए। बाहर संत को देखा, तो वह समझ गए। पुजारी ने जैसे ही मंदिर के पट खोले, तो देखा, भगवान के मुख में खिचड़ी लगी थी। वह बोले, प्रभु! यह खिचड़ी मुख में कैसे लग गई।

भगवान ने सारा वाकया सुनाया और पुजारी से कहा, मां से कहना कि नियम-धर्म संतों के लिए है। वह तो पहले की तरह ही भोजन बनाए। अगले दिन से उसी तरह खिचड़ी बननी शुरू हो गई। कर्माबाई का निधन हो गया, तो भगवान बहुत रोए। वह कहने लगे, मुझे कौन खिचड़ी खिलाएगा? इसके बाद व्यवस्था बनी कि सबसे पहले खिचड़ी का भोग ही लगेगा।

प्रश्नोत्तरी और सत्संग

प्रश्नोत्तरी और सत्संग --

भगवान मीठे कैसे लगे ?
- भगवान मीठे लगेंगे संसार खारा लगने से ।

भगवान में प्रेम कैसे बढ़े ?
- हम केवल भगवान के ही अंश हैं , अतः वे ही अपने है । उनके सिवाय और कोई भी अपना नहीँ है । इस प्रकार भगवान में अपनापन होने से प्रेम स्वतः बढेगा । इसके सिवाय भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिए कि " हे नाथ ! आप मीठे लगो , प्यारे लगो । " भगवान का गुणगान करने से उनका चरित्र पढ़ने से , उनके नाम का कीर्तन करने से उनमें प्रेम हो जाता है । भगवान के चरित्र से भी भक्त-चरित्र पढ़ने का अधिक माहात्म्य है ।

यदि हम निष्काम भाव से किसी व्यक्ति से प्रेम करें तो उसका क्या परिणाम होगा ?
- कामना के कारण ही संसार है । कामना न हो तो सब कुछ परमात्मा ही है ,  संसार है ही नहीँ । निष्काम प्रेम होने पर संसार नहीँ रहेगा । कामना गयी तो संसार गया । इसलिए निष्काम भाव से किसी के भी साथ प्रेम करें तो वह भगवान् में ही हो जायेगा ।

भगवान में प्रेम की भूख क्यों है ?
भगवान में अपार प्रेम है इसलिए उनमें प्रेम की भूख है , जैसे मनुष्य के पास जितना ज्यादा धन होता है , उतनी ही ज्यादा धन की भूख होती है । भगवान में प्रेम की कोई कमी नहीँ है , पर प्रेम की भूख है ।

भक्ति और भक्तियोग में क्या अंतर है ?
- सकाम भाव होने पर भक्ति होती है और निष्कामभाव होने पर भक्तियोग होता है । योग निष्कामभाव होने पर ही होता है ।
- स्वामी रामसुखदास जी ।

शारीरिक कष्टों को कैसे भूला जाये ?
- भुला न जाएं  , सहा जाए , चिंता-विलाप से रहित होकर । यह तप है । तप से शक्ति बढ़ती है । भूलने से तो जड़ता आवेगी । शरीर से तितिक्षा होनी चाहिए । तितिक्षा का अर्थ है हर्ष पूर्वक कष्ट को सहन करना ।

आसक्ति रहित होकर कार्य करने से क्या तात्पर्य है ?
- जिस कार्य को करने में अपना सुख निहित नहीँ होता , जो सर्वहितकारी दृष्टि से किया जाता है , वह आसक्ति रहित कार्य कहलाता है ।

भगवत्प्राप्ति में विघ्न क्या है ?
- संसार को पसन्द करना ही सबसे बड़ा विघ्न है ।

भगवान छिपा क्यों रहता है ?
- भगवान के प्रति आस्था, श्रद्धा, विश्वापूर्वक आत्मीयता और प्रियता जाग्रत नहीँ हुई ।

मन में गहरे विकार पैदा होते रहते हैं, क्या करुँ ?
- गहरी वेदना होनी चाहिये ।

होली का क्या महत्व है ?
- राग-द्वेष को अग्नि में जला दो , देहाभिमान को मिट्टी में मिला दो और प्रेम के रंग में रंग जाओ ।

मोह निवृति का उपाय बताईये ?
- मोह की निवृत्ति तो कई प्रकार से होती है -
१ आस्था के आधार पर - केवल प्रभु मेरे अपने हैं ।
२ ज्ञान के आधार पर - आसक्ति छोड़ने से ।
३ सेवा के आधार पर - सेवा करें, कुछ न चाहे ।

सम्मान के सुख से नुकसान क्या है ?
- सम्मान के सुख इतना भयंकर विष है कि विष खाने से तो मनुष्य एक ही बार मरता है , परन्तु सम्मान के सुख भोगने से कई बार जीता-मरता है ।

बन्धन क्या है ?
लेना बन्धन है । लेना बन्द करके , देना शुरू करने पर बन्धन जैसी चीज़ नहीँ रहती ।

लेने में क्या बुराई है ?
- लेने की रूचि ही नए राग की जननी है , जो पूरी न होने पर क्रोधित कर देती है । क्रोधित होने पर कर्तव्य की , निज स्वरूप की एवम् प्रभु की विस्मृति हो जाती है ।

मन भटकता रहता है ?
- मन कहीँ नहीँ भटकता । तुम संसार को चाहते हो , उसकी याद आती है । यह दोष अपना है ।

सुख और आनन्द में क्या अंतर है ?
- सुख से दुःख दब जाता है , दुःख मिटता नहीँ , केवल दबता है । आनन्द से दुःख मिट ही जाता है ।

जड़ क्या है ?
- जो दूसरों की सत्ता से प्रकाशित हो , जो स्वाधीन न हो , और जो पराधीन हो वह जड़ है ।

चेतना क्या है ?
- चेतना सूर्य के समान है जो स्वयं प्रकाशित है और जिससे जड़ पदार्थ प्रकाशित होते हैं ।

आनन्द क्या है ?
- जो होकर कभी भी नहीँ मिटे , जिसके मिलने पर फिर और कुछ पाने की इच्छा न रहे , जहाँ सदा बहती रस धारा हो । जिसका विराम न दीखता हो , वहीँ आनन्द है ।
- शरणानन्द जी ।।

सत्संगी ने संत से पूछा -- ' महात्मन् ! यदि हमारे अंदर भगवान के लिए व्याकुलता नहीँ हो , तो क्या वें हमें नहीँ मिलेगें ?
महात्मा - क्यों नहीँ मिलेंगे ! अवश्य मिलेंगे ! मिलना ही उनका जीवन है  , मिलना ही उनका जीवन मत है । बिना मिले वें रह ही नहीँ सकते । ऐसा क्यों , वें तो प्रतिदिन हज़ारो रूपों में हमसे मिलते भी है । हम उन्हें पहचानते नहीँ, इसी से उनके मिलने के आनन्द से वंचित रह जाते है । परन्तु हमारे न पहचानने से उनकी छिपने की लीला तो पूरी होती ही है , वें हमारे इस भोलेपन का आनन्द भी लेते है ।

सत्संगी - ' तब कटा हमें ही पहचानना पड़ेगा । यदि उनके मिलने पर भी हम उन्हें नहीँ पहचान सकते तो हमारे जीवन में इससे महत्वपूर्ण कौनसी घटना घटेगी कि हम उनको पहचानकर उनके आलिंगन का सुख प्राप्त कर सकेंगे ?
-- यह तो उनकी एक लीला है । जब तक वें आँख मिचौनी खेल रहे हैं , उनकी इच्छा अपने को पहचान में लाने की नहीँ हैं , तब तक किसका सामर्थ्य है कि उन्हें पहचान सकें ! परन्तु वें कब तक छिपेगे ? वे जैसे नचावैं, नाचते जाओ । कभी तो रीझेंगे ही । यदि रिंझकर उन्होंने अपना पर्दा-बनावटी वेश दूर कर दिया , तब तो कहना ही क्या है ? और यदि छिपे ही रहे तो भी हम उनके सामने ही तो नाच रहे हैं । हम चाहे उन्हें न देंखें, वे तो हमे देख रहे है न ? बस, वें हमें और हमारी प्रत्येक चेष्टा को देख रहे है और उनकी प्रसन्नता के लिए मैं रंगमंच में नाच रहा हूँ -इतना भाव रखकर, जैसे रखें, रहो । अभिनय सुंदर रहे और भीतर उनसे आत्मसात करें तो वें अवश्य तुम्हें अपनी पहचान बताएंगे, मिलेंगें ।

जय जय श्री राधे श्याम

परमात्मा को पाना है तो मैं मैं के बंधनों को छोड़ एक तेरा में समा जाओ

💥परमात्मा को पाना है तो मैं मैं के बंधनों को छोड़ एक तेरा में समा जाओ.💥एक आदमी रात को झोपड़ी में बैठकर एक छोटे से दीये को जलाकर कोई शास्त्र पढ़ रहा था । आधी रात बीत गई जब वह थक गया तो फूंक मार कर उसने दीया बुझा दिया । लेकिन वह यह देख कर हैरान हो गया कि जब तक दीया जल रहा था । पूर्णिमा का चांद बाहर खड़ा रहा ।लेकिन जैसे ही दीया बुझ गया उसकी टिमटिमाहट अँधेरे में कहीं खो गई । तो चांद की किरणें उस कमरे में फैल गई । वह आदमी बहुत हैरान हुआ यह देख कर कि एक छोटा सा दीया इतने बड़े चांद को बाहर रोके रहा । इसी तरह हमने भी अपने जीवन में अहंकार के बहुत छोटे-छोटे दीए जला रखे हैं जिसके कारण परमात्मा का चांद बाहर ही खड़ा रह जाता है ।आज मनुष्य ने स्वयं को मैं-मैं के अनेक प्रकार के बंधनों और अहंकार की बेड़ियोंमें बांध रखा है । यह सब अज्ञान अंधकार और अहंकार ही उसे परमात्मा के समीप नहीं जाने देता इसलिए परमात्मा को पाना है तो इस अंधकार से बाहर आना पड़ेगा ।इसलिए अब हमें यही पुरुषार्थ करना है कि हमारे अंदर जितने भी प्रकार के मैं मैं के दीये जल रहे हैं , जो परमात्मा के प्रकाश की किरणों को भीतर आने से रोक रहे हैं उन्हें बुझाएं । और अपने जीवन को परमात्मा के प्रकाश से भर दें ताकि जीवन में फैला अज्ञान अंधकार समाप्त हो जाएं और जीवन खुशियों से भरपूर हो जा

Monday, 4 January 2016

क्या राम कथा सुनने हनुमान जी आते हे नहीं पता आपको तो पड़े ये कथा

एक समय अयोध्या के पहुंचे हुए संत श्री रामायण कथा सुना रहे थे। रोज एक घंटा प्रवचन करते कितने ही लोग आते और आनंद विभोर होकर जाते।

साधु महाराज का नियम था रोज कथा शुरू करने से पहले

"आइए हनुमंत जी बिराजिए"

कहकर हनुमान जी का आह्वान करते थे, फिर एक घण्टा प्रवचन करते थे।

एक वकील साहब हर रोज कथा सुनने आते। वकील साहब के भक्तिभाव पर एकदिन तर्कशीलता हावी हो गई । उन्हें लगा कि महाराज रोज "आइए हनुमंत जी बिराजिए" कहते हैं तो क्या हनुमान जी सचमुच आते होंगे !

अत: वकील साहब ने महात्मा जी से  पूछ ही डाला- महाराज जी आप रामायण की कथा बहुत अच्छी कहते हैं हमें बड़ा रस आता है परंतु आप जो गद्दी प्रतिदिन हनुमान जी को देते हैं उसपर क्या हनुमान जी सचमुच बिराजते हैं ?

साधु महाराज ने कहा… हाँ यह मेरा व्यक्तिगत विश्वास है कि रामकथा हो रही हो तो हनुमान जी अवश्य पधारते हैं ।                                                  
वकील ने कहा… महाराज ऐसे बात नहीं बनेगी, हनुमान जी यहां आते हैं इसका कोई सबूत दीजिए । आप लोगों को प्रवचन सुना रहे हैं सो तो अच्छा है लेकिन अपने पास हनुमान जी की उपस्थिति बताकर आप अनुचित तरीके से लोगों को प्रभावित कर रहे हैं ।
आपको साबित करके दिखाना चाहिए कि हनुमान जी आपकी कथा सुनने आते हैं ।

महाराज जी ने बहुत समझाया कि भैया आस्था को किसी सबूत की कसौटी पर नहीं कसना चाहिए यह तो भक्त और भगवान के बीच का प्रेमरस है, व्यक्तिगत श्रद्घा का विषय है । आप कहो तो मैं प्रवचन करना बंद कर दूँ या आप कथा में आना छोड़ दो ।

लेकिन वकील नहीं माना ।

कहता ही रहा कि आप कई दिनों से दावा करते आ रहे हैं । यह बात और स्थानों पर भी कहते होंगे, इसलिए महाराज आपको तो साबित करना होगा कि हनुमान जी कथा सुनने आते हैं ।

इस तरह दोनों के बीच वाद-विवाद होता रहा । मौखिक संघर्ष बढ़ता चला गया ।

हारकर साधु महाराज ने कहा… हनुमान जी हैं या नहीं उसका सबूत कल दिलाऊंगा । कल कथा शुरू हो तब प्रयोग करूंगा ।

जिस गद्दी पर मैं हनुमानजी को विराजित होने को कहता हूं आप उस गद्दी को आज अपने घर ले जाना, कल अपने साथ उस गद्दी को लेकर आना और फिर मैं कल गद्दी यहाँ रखूंगा ।

मैं कथा से पहले हनुमानजी को बुलाऊंगा

फिर आप गद्दी ऊँची उठाना ।

यदि आपने गद्दी ऊँची कर दी तो समझना कि हनुमान जी नहीं हैं ।

वकील इस कसौटी के लिए तैयार हो गया ।

महाराज ने कहा… हम दोनों में से जो पराजित होगा वह क्या करेगा, इसका निर्णय भी कर लें ?
यह तो सत्य की परीक्षा है ।

वकील ने कहा- मैं गद्दी ऊँची न कर सका तो वकालत छोड़कर आपसे दीक्षा ले लूंगा ।
आप पराजित हो गए तो क्या करोगे ?

साधु ने कहा… मैं कथावाचन छोड़कर आपके ऑफिस का चपरासी बन जाऊंगा।

अगले दिन कथा पंडाल में भारी भीड़ हुई
जो लोग रोजाना कथा सुनने नहीं आते थे, वे भी भक्ति, प्रेम और विश्वास की परीक्षा देखने आए।

काफी भीड़ हो गई। पंडाल भर गया । श्रद्घा और विश्वास का प्रश्न जो था।

साधु महाराज और वकील साहब कथा पंडाल में पधारे ।

गद्दी रखी गई ।

महात्मा जी ने सजल नेत्रों से मंगलाचरण किया और फिर बोले…

"आइए हनुमंत जी बिराजिए"

ऐसा बोलते ही साधु महाराज के नेत्र सजल हो उठे । मन ही मन साधु बोले… प्रभु ! आज मेरा प्रश्न नहीं बल्कि रघुकुल रीति की पंरपरा का सवाल है ।
मैं तो एक साधारण जन हूँ । मेरी भक्ति और आस्था की लाज रखना ।

फिर वकील साहब को निमंत्रण दिया गया…

आइए गद्दी ऊँची कीजिए ।

लोगों की आँखे जम गईं ।

वकील साहब खड़ेे हुए ।

उन्होंने गद्दी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया पर गद्दी को स्पर्श भी न कर सके !

जो भी कारण रहा, उन्होंने तीन बार हाथ बढ़ाया, किन्तु तीनों बार असफल रहे।

महात्मा जी देख रहे थे,
गद्दी को पकड़ना तो दूर वकील साहब गद्दी को छू भी न सके ।
तीनों बार वकील साहब पसीने से तर-बतर हो गए।
वकील साहब साधु महाराज के चरणों में गिर पड़े और बोले…
महाराज गद्दी उठाना तो दूर, मुझे नहीं मालूम कि क्यों मेरा हाथ भी गद्दी तक नहीं पहुंच पा रहा है ।
अत: मैं अपनी हार स्वीकार करता हूं।

कहते है कि श्रद्घा और भक्ति के साथ की गई आराधना में बहुत शक्ति होती है ।
मानो तो देव नहीं तो पत्थर ।
प्रभु की मूर्ति तो पाषाण की ही होती है लेकिन भक्त के भाव से उसमें प्राण प्रतिष्ठा होती है और प्रभु बिराजते है ।

तुलसीदास जी कहते हैं -
साधु चरित सुभ चरित कषासू ।
निरस बिसद गुनमय फल जासू ।।
अर्थात् साधु का स्वभाव कपास जैसा होना चाहिए जो दूसरों के अवगुण को ढककर ज्ञान की अलख जगाए । जो ऐसा भाव प्राप्त कर ले वही साधु है ।
श्रद्घा और विश्वास मन को शक्ति देते हैं । संसार में बहुत कुछ ऐसा है जो हमारी तर्कशक्ति से, बुद्धि की सीमा से परेे है...:::!!!
🚩🚩🌹जय श्रीराम 🌹🚩🚩
🚩🌹जय श्रीराम भक्त हनुमान🌹🚩