हम सब अपने पुराने समय को याद करते हैं और कहते हैं कि “मैं पहले बालक था, ऐसे खेलता था, जवानी में मेरे शरीर में बड़ी शक्ति थी, अब बुढ़ापे में मेरा शरीर शक्तिहीन हो गया है.” (मैं) ऐसा सोचने और कहने वाली वाली हमारी आत्मा है. यह आत्मा (मैं) हमारे शरीर में रहते हुए भी हमारे शरीर (मेरे) से पृथक है. अत: यह स्वत: सिद्ध हो जाता है कि हमें यह शरीर जीवात्मा के रहने भर के लिए मिला है. यह शरीर हमारा स्वरूप नहीं है. यह शरीर हमें भगवत प्राप्ति के लिए ही मिला है. इसी प्रकार ये विषय भी (भोगने की, इस्तेमाल करने की वस्तुएं जैसे घर, पैसा, परिवार आदि) परमात्मा की विशेष अनुकम्पा के कारण हमें शरीर निर्वाह के लिए ही प्राप्त हुए हैं.
जहां तक बन सके विषयों की रमणीयता, विषयासक्ति तथा सुख बोध की इच्छा को छोड़कर आवश्यकता स्वरूप ही इनका (विषयों का) हमें सेवन करना चाहिए. भगवान की माया उनकी शक्ति का ही रूप है और यह संसार उनकी इस माया (शक्ति) से ही चलता है.
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