कृष्णा खुद माखन चोर थे इसलिए भगतो को भी सीखा देते है !केरल के गुर्वायुर में भगवन कृष्ण का मंदिर बहुत लोकप्रिय है और हज़ारों भक्त इसमंदिर में नियमित रूप से दर्शन के लिए आते हैं.एक बार एक भक्त ने इस मंदिर में, अपने पैरों के दर्द से मुक्ति पाने की उम्मीद में ४१ दिनों की पूजा की. वह स्वयं चलने में असमर्थ था इसलिए उसे हर जगह उठाकर ले जाना पड़ता था. चूँकि वह अमीर था, इसलिए भाड़े पर लोग रखने में समर्थ था जो उसे ढोकर मंदिर के चारों ओर ले जाते. हर सुबह उसे नहाने के लिए मंदिर के तालाब तक उठाकर ले जाया जाता था. उसने इस प्रकार अपनी पूजा के ४० दिन पूर्ण कर लिए थे.परन्तु उसकी श्रद्धापूर्ण तथा सच्ची प्रार्थना के बावजूद उसकी पीड़ा में कोई सुधार नहीं था.भगवान कृष्ण का एक और भक्त था जो गरीब था और उसी मंदिर में वह अपनी पुत्री के विवाह के लिए पूर्ण श्रद्धा से प्रार्थना कर रहा था. वर निर्धारित हो चुका था औरउसकी बेटी की सगाई भी हो चुकी थी. पर उसके पास सोने के गहने खरीदने तथा विवाह काप्रबंध करने के लिए पैसे नहीं थे. इस भक्त के स्वप्न में भगवान आए और उसे अगली सुबह मंदिर के तालाब पर जाने का निर्देश दिया. भगवान ने भक्त को आदेश दिया कि उसे वहाँ सीढ़ियों पर एक छोटी-सी थैली मिलेगी जिसे लेकर वह पीछे देखे बिना भाग जाए.अगला दिन अमीर भक्त के लिए ४१वां दिन था. हालाँकि उसके पैरों के दर्द में सुधार नहीं था पर फिर भी भगवान कृष्ण को अर्पण करने के लिए वह एक छोटी थैली में सोने के सिक्के लेकर आया था. स्नान के लिए जाने से पूर्व उसने थैली को मंदिर के तालाबकी सीढ़ियों पर रखा. स्वप्न में भगवान के सुझाव के अनुसार वह गरीब भक्त मंदिर केतालाब पर गया और सीढ़ियों पर उसे एक छोटी सी थैली मिली. उसे उठाकर पीछे मुड़े बिना वह भाग गया. अमीर भक्त ने किसी को भगवान कृष्ण के लिए रखी थैली लेकर भागते हुए देखा. वह तत्काल पानी से बाहर निकला और उस चोर के पीछे भागने लगा. वह चोर कोपकड़ नहीं पाया और निराश होकर लौट आया.अचानक उसे यह अहसास हुआ कि चोर को पकड़ने के लिए वह दौड़ा था जबकि पहले उसे उठाकर ले जाना पड़ता था.इस चमत्कार के अनुभव से अचंभित वह खड़ा का खड़ा ही रह गया . वह अति आनंदित था कि अब वह पूर्णतया पीड़ामुक्त था. भगवान कृष्ण की इस अनंत कृपा के लिए उसने प्रभु को प्रचुर धन्यवाद दिया. इस तरह ४१वे दिन ईश्वर अपने दोनों भक्तों की श्रद्धा से प्रसन्न हुए और उन्हें उदारतापूर्वक आशीर्वाद दिया. अमीर भक्त को अपने पैर के दर्द से मुक्ति मिली और गरीब भक्त को अपनी पुत्री के विवाह हेतु थैली में पर्याप्त सोने के सिक्के मिले.दोनों ने कृपालु भगवान कृष्ण को अपनी प्रार्थनाएं सुनने के लिए धन्यवाद दिया.
Wednesday, 30 December 2015
Friday, 11 December 2015
दान
दान...
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एक नगर सेठ थे। उनकी रसोई से प्रतिदिन भूखों को भोजन कराया जाता था। सेठ धार्मिक व्यक्ति थे। सत्कार्यों का यश लेना चाहते थे लेकिन ज्यादा धन खर्च नहीं करना चाहते थे। भूखों को भोजन खिलाते थे लेकिन खराब अनाज़ का...।
नगरसेठ का अनाज का व्यापार था। जो अनाज खराब हो जाता था उसी अनाज की रोटी बना कर भूखों को दान में दी जाती थी।
इसी प्रकार दिन बीतते गये । घर में पुत्रवधू आई। अब रसोई संभालना पुत्रवधु का काम था। वह बहुत दानशील ,संस्कारी व धार्मिक युवती थी।
नगरसेठ खाना खाने बैठे, वधू ने भोजन परोसा । एक कौर मुंह में दिया ही था कि थू-थू कर के उठ गये , पूछा , “रसोई में इतना आटा है ,यह खराब आटे की रोटी क्यों बना दी.......??????”
” पिताजी यह वैसी रोटी है जो रोज़ दान में भूखों को दी जाती है..आपको भी यही खाने की आदत डाल लेनी चाहिये।
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सुना है परलोक में वही मिलता है जो भू लोक में दान करते हैं। ”
सेठ भी संवेदनशील थे। फ़ौरन खराब आटा फ़िकवा दिया गया और दान के लिये अच्छे अनाज का प्रबंध कर दिया गया।
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सीख ;
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” संसार में यश मिले” इस भावना से निरर्थक व अनुपयोगी वस्तुओं का दान न करें।
Sunday, 6 December 2015
भगवान श्री राम कैसे इस लोक को छोड़कर वापस विष्णुलोक गए ?
भगवान श्री राम कैसे इस लोक को छोड़कर वापस विष्णुलोक गए ?
भगवान श्री राम के मृत्यु वरण में सबसे बड़ी बाधा उनके प्रिय भक्त हनुमान थे। क्योंकि हनुमान के होते हुए यम की इतनी हिम्मत नहीं थी की वो राम के पास पहुँच जाय। पर स्वयं श्री राम ने इसका हल निकाला।
आइये जानते है कैसे श्री राम ने इस समस्या का हल निकाला।
एक दिन, राम जान गए कि उनकी मृत्यु का समय हो गया था। वह जानते थे कि जो जन्म लेता है उसे मरना पड़ता है। “यम को मुझ तक आने दो। मेरे लिए वैकुंठ, मेरे स्वर्गिक धाम जाने का समय आ गया है”, उन्होंने कहा।
लेकिन मृत्यु के देवता यम अयोध्या में घुसने से डरते थे क्योंकि उनको राम के परम भक्त और उनके महल के मुख्य प्रहरी हनुमान से भय लगता था।
यम के प्रवेश के लिए हनुमान को हटाना जरुरी था। इसलिए राम ने अपनी अंगूठी को महल के फर्श के एक छेद में से गिरा दिया और हनुमान से इसे खोजकर लाने के लिए कहा। हनुमान ने स्वंय का स्वरुप छोटा करते हुए बिलकुल भंवरे जैसा आकार बना लिया और केवल उस अंगूठी को ढूढंने के लिए छेद में प्रवेश कर गए, वह छेद केवल छेद नहीं था बल्कि एक सुरंग का रास्ता था जो सांपों के नगर नाग लोक तक जाता था।
हनुमान नागों के राजा वासुकी से मिले और अपने आने का कारण बताया।
वासुकी हनुमान को नाग लोक के मध्य में ले गए जहां अंगूठियों का पहाड़ जैसा ढेर लगा हुआ था! “यहां आपको राम की अंगूठी अवश्य ही मिल जाएगी” वासुकी ने कहा। हनुमान सोच में पड़ गए कि वो कैसे उसे ढूंढ पाएंगे क्योंकि ये तो भूसे में सुई ढूंढने जैसा था।
लेकिन सौभाग्य से, जो पहली अंगूठी उन्होंने उठाई वो राम की अंगूठी थी। आश्चर्यजनक रुप से, दूसरी भी अंगूठी जो उन्होंने उठाई वो भी राम की ही अंगूठी थी। वास्तव में वो सारी अंगूठी जो उस ढेर में थीं, सब एक ही जैसी थी। “इसका क्या मतलब है?” वह सोच में पड़ गए।
वासुकी मुस्कुराए और बाले, “जिस संसार में हम रहते है, वो सृष्टि व विनाश के चक्र से गुजरती है। इस संसार के प्रत्येक सृष्टि चक्र को एक कल्प कहा जाता है। हर कल्प के चार युग या चार भाग होते हैं। दूसरे भाग या त्रेता युग में, राम अयोध्या में जन्म लेते हैं। एक वानर इस अंगूठी का पीछा करता है और पृथ्वी पर राम मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
इसलिए यह सैकड़ो हजारों कल्पों से चली आ रही अंगूठियों का ढेर है। सभी अंगूठियां वास्तविक हैं। अंगूठियां गिरती रहीं और इनका ढेर बड़ा होता रहा। भविष्य के रामों की अंगूठियों के लिए भी यहां काफी जगह है”।
हनुमान जान गए कि उनका नाग लोक में प्रवेश और अंगूठियों के पर्वत से साक्षात, कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। यह राम का उनको समझाने का मार्ग था कि मृत्यु को आने से रोका नहीं जा सकेगा। राम मृत्यु को प्राप्त होंगे। संसार समाप्त होगा। लेकिन हमेशा की तरह, संसार पुनः बनता है और राम भी पुनः जन्म लेंगे।
Sunday, 22 November 2015
राधे नाम की महिमा
गोकुल में एक मोर रहता था. वह रोज़ भगवान कृष्ण भगवान के दरवाजे पर बैठकर एक भजन गाता था- “मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया मेरे, माँ बाप सांवरिया मेरे”.
रोज आते-जाते भगवान के कानों में उसका भजन तो पड़ता था लेकिन कोई खास ध्यान न देते. मोर भगवान के विशेष स्नेह की आस में रोज भजन गाता रहा.
एक-एक दिन करते एक साल बीत गए. मोर बिना चूके भजन गाता रहा. प्रभु सुनते भी रहे लेकिन कभी कोई खास तवज्जो नहीं दिया.
बस वह मोर का गीत सुनते, उसकी ओर एक नजर देखते और एक प्यारी सी मुस्कान देकर निकल जाते. इससे ज्यादा साल भर तक कुछ न हुआ तो उसकी आस टूटने लगी.
साल भर की भक्ति पर भी प्रभु प्रसन्न न हुए तो मोर रोने लगा. वह भगवान को याद करता जोर-जोर से रो रहा था कि उसी समय वहां से एक मैना उडती जा रही थी.
उसने मोर को रोता हुआ देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ. आश्चर्य इस बात का नहीं था कि कोई मोर रो रहा है अचंभा इसका था कि श्रीकृष्ण के दरवाजे पर भी कोई रो रहा है!
मैना सोच रही थी कितना अभागा है यह पक्षी जो उस प्रभु के द्वार पर रो रहा है जहां सबके कष्ट अपने आप दूर हो जाते हैं.
मैना, मोर के पास आई और उससे पूछा कि तू क्यों रो रहा है?
मोर ने बताया कि पिछले एक साल से बांसुरी वाले छलिये को रिझा रहा है, उनकी प्रशंसा में गीत गा रहा है लेकिन उन्होंने आज तक मुझे पानी भी नही पिलाया.
यह सुन मैना बोली- मैं बरसाने से आई हूं. तुम भी मेरे साथ वहीं चलो. वे दोनों उड़ चले और उड़ते-उड़ते बरसाने पहुंच गए.
मैना बरसाने में राधाजी के दरवाजे पर पहुंची और उसने अपना गीत गाना शुरू किया- श्री राधे-राधे-राधे, बरसाने वाली राधे.
मैना ने मोर से भी राधाजी का गीत गाने को कहा. मोर ने कोशिश तो की लेकिन उसे बांके बिहारी का भजन गाने की ही आदत थी.
उसने बरसाने आकर भी अपना पुराना गीत गाना शुरू कर दिया- मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया मेरे, माँ बाप सांवरिया मेरे”
राधाजी के कानों में यह गीत पड़ा. वह भागकर मोर के पास आईं और उसे प्रेम से गले लगा लगाकर दुलार किया.
राधाजी मोर के साथ ऐसा बर्ताव कर रही थीं जैसे उनका कोई पुराना खोया हुआ परिजन वापस आ गया है. उसकी खातिरदारी की और पूछा कि तुम कहां से आए हो?
मोर इससे गदगद हो गया. उसने कहना शुरू किया- जय हो राधा रानी आज तक सुना था की आप करुणा की मूर्ति हैं लेकिन आज यह साबित हो गया.
राधाजी ने मोर से पूछा कि वह उन्हें करुणामयी क्यों कह रहा है. मोर ने बताया कि कैसे वह सालभर श्याम नाम की धुन रमाता रहा लेकिन कन्हैया ने उसे कभी पानी भी न पिलाया.
राधाजी मुस्कराईं. वह मोर के मन का टीस समझ गई थीं और उसका कारण भी.
राधाजी ने मोर से कहा कि तुम गोकुल जाओ. लेकिन इसबार पुराने गीत की जगह यह गाओ- जय राधे राधे राधे, बरसाने वाली राधे.
मोर का मन तो नहीं था करुणामयी को छोडकर जाने का, फिर भी वह गोकुल आया राधाजी के कहे मुताबिक राधे-राधे गाने लगा.
भगवान श्रीकृष्ण के कानों में यह भजन पड़ा और वह भागते हुए मोर के पास आए, गले से लगा लिया और उसका हाल-चाल पूछने लगे.
श्रीकृष्ण ने पूछा कि मोर तुम कहां से आए हो. इतना सुनते ही मोर भड़क गया.
मोर बोला- वाह छलिये एक साल से मैं आपके नाम की धुन रमा रहा था, लेकिन आपने तो कभी पानी भी नहीं पूछा. आज जब मैंने पार्टी बदल ली तो आप भागते चले आए.
भगवान मुस्कुराने लगे. उन्होंने मोर से फिर पूछा कि तुम कहां से आए हो.
मोर सांवरिए से मिलने के लिए बहुत तरसा था. आज वह अपनी सारी शिकवा-शिकायतें दूर कर लेना चाहता था.
उसने प्रभु को याद दिलाया- मैं वही मोर हूं जो पिछले एक साल से आपके द्वार पर “मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया मेरे, माँ बाप सांवरिया मेरे” गाया करता था.
सर्दी-गर्मी सब सहता एक साल तक आपके दरवाजे पर डटा रहा और आपकी स्तुति करता रहा लेकिन आपने मुझसे पानी तक न पूछा. मैं फिर बरसाने चला गया. राधाजी मिलीं. उन्होंने मुझे पूरा प्यार-दुलार दिया.
भगवान श्रीकृष्ण मुग्ध हो गए. उन्होंने मोर से कहा- मोर, तुमने राधा का नाम लिया यह तुम्हारे लिए वरदान साबित होगा. मैं वरदान देता हूं कि जब तक यह सृष्टि रहेगी, तुम्हारा पंख सदैव मेरे शीश पर विराजमान होगा.
जय श्री कृष्णा
ज्ञान मुद्रा
ज्ञानमुद्रा :
विधि : अँगूठे को तर्जनी (इंडेक्स) अँगुली से स्पर्श करते हुए शेष तीन अँगुलियों को सीधा तान दें। इस मुद्रा के लिए कोई विशेष समय अवधि नहीं है। सिद्धासन में बैठकर, खड़े रहकर या बिस्तर पर जब भी समय मिले आप इसका अभ्यास कर सकते हैं।
लाभ : ज्ञानमुद्रा ज्ञान को बढ़ाती है। अँगुलियों के दोनों ओर की ग्रंथियाँ सक्रिय रूप से कार्य करती हैं। इससे मस्तिष्क तेज और स्मृति शक्ति बढ़ती है। यह मुद्रा एकाग्रता को बढ़ाकर अनिद्रा, हिस्टीरिया, गुस्सा और निराशा को दूर करती है। यदि इसका नियमित अभ्यास किया जाए तो सभी तरह के मानसिक विकारों तथा नशे की आदतों से मुक्ति मिल सकती है। इसके अभ्यास से मन प्रसन्न रहता है।
Saturday, 7 November 2015
पौराणिक कथा: कैसे हुआ धरती और हिमालय का निर्माण?
लाखों वर्षो पहले की बात है जब भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषशायी हुआ करते थे, उसी समय उस सागर में एक समुद्री चिड़िया का दम्पति रहता था. मादा चिड़िया हर साल समुद्र के किनारे अंडे देती थी लेकिन हर बार समुन्द्र उन अन्डो को अपने थपेड़ो से नष्ट कर देता था.
काफी समय तक जब ऐसा ही चलता रहा तो समुद्री चिड़िया के उस जोड़े ने भगवान विष्णु को अपना दुखड़ा कह सुनाया, उनकी करुण पुकार सुन विष्णु जी का दिल भर आया और उन्होंने समुन्द्र के पुरे जल को निगल लिया. समुन्द्र से जब पूरा जल समाप्त हो गया तो जो भू भाग बना उसे ही हम आज धरती माता के नाम से जानते है.
समुन्द्र को निगलने पर भगवान को सुस्ती आई और वो गहरी नींद में सो गए, लेकिन तब ऋषि कश्यप और दिति( दक्ष कन्या) का पुत्र असुर हिरण्याक्ष वंहा आ धमका. वो सोने का शौकीन था इसलिए उसने धरती से सोना निकलना शुरू किया, उसने इतना सोना निकल लिया की धरती के कई भाग अपनी कक्षा से उठने लगे.
उन उठे हुए भूभाग का ढेर अंत में हिमालय का रूप ले चूका था, पर तब हिरण्याक्ष ने धरती को लेजके समुन्द्र ताल में छुपा दिया. तब भगवान विष्णु की नींद खुली और उन्होंने हिरण्याक्ष से युद्ध किया, ये युद्ध एक हजार साल चला अंत में असुर परास्त हुआ और भगवान विष्णु के हाथो मारा गया.
इस प्रकार धरती और हिमालय का निर्माण हुआ जो कालांतर में आज का स्वरुप ले चुके है, उसके बाद ब्रह्मा ने धरती को इंसानो के रहने लायक बनाया. अक्षय तृतीया के दिन भगवान विष्णु ने अपने मानस पुत्रो सप्त ऋषियों और दस प्रजापतियों का निर्माण किया और उन्हें धरती पर रहने भेजा.
उसी दौरान ही समुन्द्र मंथन भी हुआ था जिसमे पर्वत के घर्षण को रोकने के लिए भगवान विष्णु ने कुर्मा( कछुआ) अवतार लिया. 1728000 साल बाद जब सतयुग का अंत हुआ तो सप्तऋषियों और मनु को बचने के लिए भगवान विष्णु ने मतस्य अवतार लिया. दुनिया के पौराणिक इतिहास को जानने के लिए जुड़े रहे हमारे साथ.
Friday, 6 November 2015
द्वापर युग की समाप्ति पे कैसे हुआ था पांडवो का अंत!
भगवान कृष्ण एक जंगल से होके निकल रहे थे तभी उनके पैर में एक कांटा लगा और वो दर्द से कराहते हुए एक पेड़ के नीचे बैठ गए, तभी एक भील शिकारी वंही से निकला, उसे कृष्ण की कराह किसी जानवर सी लगी और उसने शब्दभेदी वाण से तीर चलाया जो सीखा कृष्ण के पैर में लगा.
जब शिकारी ने कृष्ण को देखा तो वो रो पड़ा और क्षोभ करने लगा, तब कृष्ण ने उसे पूर्व जन्म का स्मरण कराया जब राम रूप में उन्होंने छुप कर बाली को मारा था और भील वही बाली था. तब बाली रूपी भील चुप हुआ वैकुण्ठ से गरुड़ आये और भगवान सशरीर अपने निवास चले गए.
अर्जुन को कृष्ण ने पहले ही अपने द्वारिका नगरी की जवाबदेही सौंप रखी थी, अर्जुन द्वरिकावासियो समेत जैसे ही नगर के बाहर निकले की नगर समुद्र में डूब गया। अर्जुन यदुवंश को लेकर तेजी से हस्तिनापुर की ओर चलने लगे, रास्ते में कालयवन के बचे हुए सैनिक वहां लुटेरों के रूप में तैयार थे. जब उन्होंने देखा कि अर्जुन अकेले ही इतने बड़े जनसमुदाय को लेकर जा रहे हैं तो धन के लालच में आकर उन्होंने उन पर हमला कर दिया।
अर्जुन ने अपनी शक्तियों को याद किया, लेकिन उसकी शक्ति समाप्त हो गई, अर्जुन जैसे योद्धा के होते भी भगवान कृष्ण के नगरवासी लुटे और गोपियों तक को लुटेरे उठा ले गए अर्जुन को पता न थी लेकिन कृष्ण के साथ ही सारी शक्तिया समाप्त हो गई.
अर्जुन ने जब ये व्यास ऋषि को बताया तब उन्होंने कहा कि जिस उद्देश्य से तुम्हे शक्तिया प्राप्त हुई थी वो अब पूरे हुए, अत: अब तुम्हारे परलोक गमन का समय आ गया है और यही तुम्हारे लिए सही है।
महर्षि वेदव्यास की बात सुनकर अर्जुन उनकी आज्ञा से हस्तिनापुर आए और उन्होंने पूरी बात महाराज युधिष्ठिर को बता दी। महर्षि वेदव्यास की बात मानकर द्रौपदी सहित पांडवों ने राज-पाठ त्याग कर परलोक जाने का निश्चय किया, सुभद्रा को राज माता बनाया गया, परीक्षित अभी छोटा था इसलिए राजकाज की जिम्मेदारी युयुत्सु को दी गई।
पांडवों व द्रौपदी ने साधुओं के वस्त्र धारण किए और स्वर्ग जाने के लिए निकल पड़े, पांडवों के साथ-साथ एक कुत्ता भी चलने लगा। अनेक तीर्थों, नदियों व समुद्रों की यात्रा करते-करते पांडव आगे बढऩे लगे। यात्रा करते-करते पांडव हिमालय तक पहुंच गए, हिमालय लांघ कर पांडव आगे बढ़े तो उन्हें बालू का समुद्र दिखाई पड़ा।
इसके बाद उन्होंने सुमेरु पर्वत के दर्शन किए, वंही से सारे पांडव एक एक करके मरने लगे सिर्फ युधिष्ठर और उनके साथ ही चल रहा एक कुत्ता जीवित रहा. युधिष्ठिर कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें स्वर्ग ले जाने के लिए स्वयं देवराज इंद्र अपना रथ लेकर आ गए, तब युधिष्ठिर ने इंद्र से बाकि पांडवो के मरने का कारण पूछा.
इंद्र ने बताया की पांचाली अर्जुन से ज्यादा मोह के चलते और भीम को बल का अर्जुन को युद्ध कौशल का नकुल को रूप और सहदेव को बुद्धि पर घमंड था इसके कारण वे सशरीर स्वर्ग नहीं जा पाये।
युधिष्ठिर ने कहा कि यह कुक्कर मेरे साथ ही जायेगा इसने मेरा साथ नहीं छोड़ा, तब कुत्ता यमराज के रूप में बदल गया। युधिष्ठिर को कुत्ते से भी सद्भावना रखने पर आनंदित हुए, इसके बाद देवराज इंद्र युधिष्ठिर को अपने रथ में बैठाकर स्वर्ग ले गए। दरअसल वो कुत्ता विदुर के रूप में यमराज की आत्मा थी, यमराज मांडव्य ऋषि के श्राप के चलते विदुर रूप में जन्मे थे.
युधिष्ठिर को पहले स्वर्ग के धोखे में नरक ले जाया गया जन्हा उन्हें किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी, वे उसे कुछ देर वहीं ठहरने के लिए कह रहे थे। युधिष्ठिर ने जब पूछा की तुम कौन हो तो उन्होंने पांडव होने का दावा किया, तब युधिष्ठिर ने उस देवदूत से कहा कि तुम पुन: देवताओं के पास लौट जाओ, मेरे यहां रहने से यदि मेरे भाइयों को सुख मिलता है तो मैं इस दुर्गम स्थान पर ही रहूंगा।
देवदूत ने यह बात जाकर देवराज इंद्र को बता दी, तब उन्हें बताया गया की सिर्फ एक झूठ जिसके कारण अश्वत्थामा के पिता द्रोण मृत्यु को प्राप्त हुए, तुम्हे भी छल से ही कुछ देर नरक के दर्शन पड़े। अब तुम मेरे साथ स्वर्ग चलो। वहां तुम्हारे भाई व अन्य वीर पहले ही पहुंच गए हैं तब देवराज इंद्र के कहने पर युधिष्ठिर ने देवनदी गंगा में स्नान किया, स्नान करते ही उन्होंने मानव शरीर त्याग करके दिव्य शरीर धारण कर लिया।
इसके बाद बहुत से महर्षि उनकी स्तुति करते हुए उन्हें उस स्थान पर ले गए जहां उनके चारों भाई, कर्ण, भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रौपदी आदि आनंदपूर्वक विराजमान थे। युधिष्ठिर ने वहां भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किए, अर्जुन उनकी सेवा कर रहे थे और युधिष्ठिर को आया देख श्रीकृष्ण व अर्जुन ने उनका स्वागत किया।
युधिष्ठिर ने देखा कि भीम पहले की तरह शरीर धारण किए वायु देवता के पास बैठे थे, कर्ण को सूर्य के समान स्वरूप धारण किए बैठे देखा। नकुल व सहदेव अश्विनी कुमारों के साथ बैठे थे तब देवराज इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि ये जो साक्षात भगवती लक्ष्मी दिखाई दे रही हैं। इनके अंश से ही द्रौपदी का जन्म हुआ था, इसके बाद इंद्र ने महाभारत युद्ध में मारे गए सभी वीरों के बारे में युधिष्ठिर को विस्तार पूर्वक बताया। इस प्रकार युधिष्ठिर अपने भाइयों व अन्य संबंधियों को वहां देखकर बहुत प्रसन्न हुए।
पांडवों के स्वर्गारोहण के इस प्रसंग के साथ ही महाभारत कथा समाप्त हो जाती है।
द्वापर युग की समाप्ति पे कैसे हुआ था पांडवो का अंत!
भगवान कृष्ण एक जंगल से होके निकल रहे थे तभी उनके पैर में एक कांटा लगा और वो दर्द से कराहते हुए एक पेड़ के नीचे बैठ गए, तभी एक भील शिकारी वंही से निकला, उसे कृष्ण की कराह किसी जानवर सी लगी और उसने शब्दभेदी वाण से तीर चलाया जो सीखा कृष्ण के पैर में लगा.
जब शिकारी ने कृष्ण को देखा तो वो रो पड़ा और क्षोभ करने लगा, तब कृष्ण ने उसे पूर्व जन्म का स्मरण कराया जब राम रूप में उन्होंने छुप कर बाली को मारा था और भील वही बाली था. तब बाली रूपी भील चुप हुआ वैकुण्ठ से गरुड़ आये और भगवान सशरीर अपने निवास चले गए.
अर्जुन को कृष्ण ने पहले ही अपने द्वारिका नगरी की जवाबदेही सौंप रखी थी, अर्जुन द्वरिकावासियो समेत जैसे ही नगर के बाहर निकले की नगर समुद्र में डूब गया। अर्जुन यदुवंश को लेकर तेजी से हस्तिनापुर की ओर चलने लगे, रास्ते में कालयवन के बचे हुए सैनिक वहां लुटेरों के रूप में तैयार थे. जब उन्होंने देखा कि अर्जुन अकेले ही इतने बड़े जनसमुदाय को लेकर जा रहे हैं तो धन के लालच में आकर उन्होंने उन पर हमला कर दिया।
अर्जुन ने अपनी शक्तियों को याद किया, लेकिन उसकी शक्ति समाप्त हो गई, अर्जुन जैसे योद्धा के होते भी भगवान कृष्ण के नगरवासी लुटे और गोपियों तक को लुटेरे उठा ले गए अर्जुन को पता न थी लेकिन कृष्ण के साथ ही सारी शक्तिया समाप्त हो गई.
अर्जुन ने जब ये व्यास ऋषि को बताया तब उन्होंने कहा कि जिस उद्देश्य से तुम्हे शक्तिया प्राप्त हुई थी वो अब पूरे हुए, अत: अब तुम्हारे परलोक गमन का समय आ गया है और यही तुम्हारे लिए सही है।
महर्षि वेदव्यास की बात सुनकर अर्जुन उनकी आज्ञा से हस्तिनापुर आए और उन्होंने पूरी बात महाराज युधिष्ठिर को बता दी। महर्षि वेदव्यास की बात मानकर द्रौपदी सहित पांडवों ने राज-पाठ त्याग कर परलोक जाने का निश्चय किया, सुभद्रा को राज माता बनाया गया, परीक्षित अभी छोटा था इसलिए राजकाज की जिम्मेदारी युयुत्सु को दी गई।
पांडवों व द्रौपदी ने साधुओं के वस्त्र धारण किए और स्वर्ग जाने के लिए निकल पड़े, पांडवों के साथ-साथ एक कुत्ता भी चलने लगा। अनेक तीर्थों, नदियों व समुद्रों की यात्रा करते-करते पांडव आगे बढऩे लगे। यात्रा करते-करते पांडव हिमालय तक पहुंच गए, हिमालय लांघ कर पांडव आगे बढ़े तो उन्हें बालू का समुद्र दिखाई पड़ा।
इसके बाद उन्होंने सुमेरु पर्वत के दर्शन किए, वंही से सारे पांडव एक एक करके मरने लगे सिर्फ युधिष्ठर और उनके साथ ही चल रहा एक कुत्ता जीवित रहा. युधिष्ठिर कुछ ही दूर चले थे कि उन्हें स्वर्ग ले जाने के लिए स्वयं देवराज इंद्र अपना रथ लेकर आ गए, तब युधिष्ठिर ने इंद्र से बाकि पांडवो के मरने का कारण पूछा.
इंद्र ने बताया की पांचाली अर्जुन से ज्यादा मोह के चलते और भीम को बल का अर्जुन को युद्ध कौशल का नकुल को रूप और सहदेव को बुद्धि पर घमंड था इसके कारण वे सशरीर स्वर्ग नहीं जा पाये।
युधिष्ठिर ने कहा कि यह कुक्कर मेरे साथ ही जायेगा इसने मेरा साथ नहीं छोड़ा, तब कुत्ता यमराज के रूप में बदल गया। युधिष्ठिर को कुत्ते से भी सद्भावना रखने पर आनंदित हुए, इसके बाद देवराज इंद्र युधिष्ठिर को अपने रथ में बैठाकर स्वर्ग ले गए। दरअसल वो कुत्ता विदुर के रूप में यमराज की आत्मा थी, यमराज मांडव्य ऋषि के श्राप के चलते विदुर रूप में जन्मे थे.
युधिष्ठिर को पहले स्वर्ग के धोखे में नरक ले जाया गया जन्हा उन्हें किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी, वे उसे कुछ देर वहीं ठहरने के लिए कह रहे थे। युधिष्ठिर ने जब पूछा की तुम कौन हो तो उन्होंने पांडव होने का दावा किया, तब युधिष्ठिर ने उस देवदूत से कहा कि तुम पुन: देवताओं के पास लौट जाओ, मेरे यहां रहने से यदि मेरे भाइयों को सुख मिलता है तो मैं इस दुर्गम स्थान पर ही रहूंगा।
देवदूत ने यह बात जाकर देवराज इंद्र को बता दी, तब उन्हें बताया गया की सिर्फ एक झूठ जिसके कारण अश्वत्थामा के पिता द्रोण मृत्यु को प्राप्त हुए, तुम्हे भी छल से ही कुछ देर नरक के दर्शन पड़े। अब तुम मेरे साथ स्वर्ग चलो। वहां तुम्हारे भाई व अन्य वीर पहले ही पहुंच गए हैं तब देवराज इंद्र के कहने पर युधिष्ठिर ने देवनदी गंगा में स्नान किया, स्नान करते ही उन्होंने मानव शरीर त्याग करके दिव्य शरीर धारण कर लिया।
इसके बाद बहुत से महर्षि उनकी स्तुति करते हुए उन्हें उस स्थान पर ले गए जहां उनके चारों भाई, कर्ण, भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रौपदी आदि आनंदपूर्वक विराजमान थे। युधिष्ठिर ने वहां भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किए, अर्जुन उनकी सेवा कर रहे थे और युधिष्ठिर को आया देख श्रीकृष्ण व अर्जुन ने उनका स्वागत किया।
युधिष्ठिर ने देखा कि भीम पहले की तरह शरीर धारण किए वायु देवता के पास बैठे थे, कर्ण को सूर्य के समान स्वरूप धारण किए बैठे देखा। नकुल व सहदेव अश्विनी कुमारों के साथ बैठे थे तब देवराज इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि ये जो साक्षात भगवती लक्ष्मी दिखाई दे रही हैं। इनके अंश से ही द्रौपदी का जन्म हुआ था, इसके बाद इंद्र ने महाभारत युद्ध में मारे गए सभी वीरों के बारे में युधिष्ठिर को विस्तार पूर्वक बताया। इस प्रकार युधिष्ठिर अपने भाइयों व अन्य संबंधियों को वहां देखकर बहुत प्रसन्न हुए।
पांडवों के स्वर्गारोहण के इस प्रसंग के साथ ही महाभारत कथा समाप्त हो जाती है।