Saturday, 8 April 2017

*इच्छापूर्ति वॄक्ष*

*इच्छापूर्ति वॄक्ष*

एक घने जंगल में एक *इच्छापूर्ति वृक्ष* था उसके नीचे बैठ कर कोई भी *इच्छा* करने से वह तुरंत पूरी हो जाती थी।
यह बात बहुत कम लोग जानते थे..क्योंकि उस घने जंगल में जाने की कोई हिम्मत ही नहीं करता था
एक बार संयोग से एक थका हुआ *व्यापारी* उस वृक्ष के नीचे आराम करने के लिए बैठ गया उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी नींद लग गई।
*जागते ही उसे बहुत *भूख लगी*
उसने आस पास देखकर सोचा- ' काश *कुछ खाने को मिल जाए !*' तत्काल स्वादिष्ट *पकवानों से भरी थाली हवा में तैरती हुई उसके सामने आ गई।
व्यापारी ने *भरपेट खाना* खाया और भूख शांत होने के बाद सोचने लगा..
*काश कुछ पीने को मिल जाए..*' तत्काल उसके सामने हवा में तैरते हुए अनेक *शरबत* आ गए।
*शरबत* पीने के बाद वह आराम से बैठ कर सोचने लगा-   ' *कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूँ*
हवा में से खाना पानी प्रकट होते पहले कभी नहीं देखा न ही सुना..जरूर इस *पेड़ पर कोई भूत* रहता है जो मुझे खिला पिला कर बाद में *मुझे खा लेगा*  ऐसा सोचते ही तत्काल उसके सामने एक भूत आया और उसे खा गया।*
इस प्रसंग से आप यह सीख सकते है कि *हमारा मस्तिष्क ही इच्छापूर्ति वृक्ष है । आप जिस चीज की प्रबल कामना करेंगे  वह आपको अवश्य मिलेगी।*
अधिकांश लोगों को जीवन में बुरी चीजें इसलिए मिलतीहैं.....
क्योंकि वे *बुरी चीजों की ही कामना* करते हैं।

इंसान ज्यादातर समय सोचता है-कहीं बारिश में भीगने से मै *बीमार न हों जाँऊ* ..और वह *बीमार हो जाता हैं*..!

इंसान सोचता है - मेरी *किस्मत ही खराब* है .. और उसकी *किस्मत सचमुच खराब* हो जाती हैं ..!

इस तरह आप देखेंगे कि आपका *अवचेतन मन* इच्छापूर्ति वृक्ष की तरह आपकी *इच्छाओं को ईमानदारी से पूर्ण* करता है..!
इसलिए आपको अपने मस्तिष्क में *विचारों को सावधानी से प्रवेश* करने की *अनुमति देनी चाहिए।*
यदि *गलत विचार* अंदर आ जाएगे तो *गलत परिणाम* मिलेंगे। *विचारों पर काबू* रखना ही अपने *जीवन पर काबू* करने का रहस्य है..!
आपके *विचारों से ही* आपका  *जीवन* या तो..
*स्वर्ग* बनता है या *नरक*..
उनकी बदौलत ही आपका *जीवन सुखमय या दुख:मय* बनता है..
*विचार जादूगर* की तरह होते है , जिन्हें *बदलकर* आप अपना *जीवन बदल* सकते है..!
इसलिये सदा *सकारात्मक सोच* रखें ..
यदि आप *अच्छा सोचने लगते है*तो पूरी *कायनात* आपको और अच्छा *देने में लग जाती है*

#  एक बार प्रयास कर के देखिये  #

Thursday, 5 January 2017

कैसे हुआ शक्ति पीठ का उदय

कैसे हुआ शक्ति पीठ का उदय

मां के 51 शक्तिपीठों की एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता दुर्गा ने सती के रूप में जन्म लिया था और भगवान शिव से उनका विवाह हुआ था. एक बार मुनियों के एक समूह ने यज्ञ आयोजित किया. यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया गया था. जब राजा दक्ष आए तो सभी लोग खड़े हो गए लेकिन भगवान शिव खड़े नहीं हुए. भगवान शिव दक्ष के दामाद थे.
यह देख कर राजा दक्ष बेहद क्रोधित हुए. अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए सती के पिता राजा प्रजापति दक्ष ने भी एक यज्ञ का आयोजन किया. उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन उन्होंने जान-बूझकर अपने जमाता भगवान शिव को इस यज्ञ का निमंत्रण नहीं भेजा.भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए और जब नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है. यह जानकर वे क्रोधित हो उठीं. नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की जरूरत नहीं होती है. जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने उन्हें समझाया लेकिन वह नहीं मानी तो प्रभु ने स्वयं जाने से इंकार कर दिया.
शंकर जी के रोकने पर भी जिद कर सती यज्ञ में शामिल होने चली गईं. यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया. इस पर दक्ष, भगवान शंकर के बारे में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे. इस अपमान से पीड़ित सती ने यज्ञ-कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी.
भगवान शंकर को जब यह पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया. ब्रम्हाण्ड में प्रलय व हाहाकार मच गया. शिव जी के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सजा दी. भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी होकर सारे भूमंडल में घूमने लगे.
भगवती सती ने शिवजी को दर्शन दिए और कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के अंग अलग होकर गिरेंगे, वहां महाशक्तिपीठ का उदय होगा. सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर घूमते हुए तांडव भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी. पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खंड-खंड कर धरती पर गिराते गए. जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से माता के शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते.
शास्‍त्रों के अनुसार इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, उनके वस्त्र या आभूषण गिरे , वहां-वहां शक्तिपीठ का उदय हुआ. इस तरह कुल 51 स्थानों में माता के शक्तिपीठों का निर्माण हुआ. अगले जन्म में सती ने राजा हिमालय के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिव को पुन: पति रूप में प्राप्त किया.

Thursday, 15 September 2016

जानिए क्यों किया जाता है श्रीगणेश का विसर्जन

जानिए क्यों किया जाता है श्रीगणेश का विसर्जन

धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार श्री वेद व्यास ने गणेश चतुर्थी से महाभारत कथा श्री गणेश को लगातार १० दिन तक सुनाई थी जिसे श्री गणेश जी ने अक्षरश: लिखा था। १० दिन बाद जब वेद व्यास जी ने आंखें खोली तो पाया कि १० दिन की अथक मेहनत के बाद गणेश जी का तापमान बहुत अधिक हो गया है। तुरंत वेद व्यास जी ने गणेश जी को निकट के सरोवर में ले जाकर ठंडा किया था। इसलिए गणेश स्थापना कर चतुर्दशी को उनको शीतल किया जाता है।

इसी कथा में यह भी वर्णित है कि श्री गणपति जी के शरीर का तापमान ना बढ़े इसलिए वेद व्यास जी ने उनके शरीर पर सुगंधित सौंधी माटी का लेप किया। यह लेप सूखने पर गणेश जी के शरीर में अकड़न आ गई। माटी झरने भी लगी। तब उन्हें शीतल सरोवर में ले जाकर पानी में उतारा। इस बीच वेदव्यास जी ने १० दिनों तक श्री गणेश को मनपसंद आहार अर्पित किए तभी से प्रतीकात्मक रूप से श्री गणेश प्रतिमा का स्थापन और विसर्जन किया जाता है और १० दिनों तक उन्हें सुस्वाद आहार चढ़ाने की भी प्रथा है।
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Saturday, 25 June 2016

आखिर क्यों पड़ी थी #समुद्रमंथन की जरूरत...

आखिर क्यों पड़ी थी #समुद्रमंथन की जरूरत...

एक बार शिवजी के दर्शन के लिए दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ कैलाश जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब दुर्वासा ऋषि ने इन्द्र को आशीर्वाद देकर विष्णु भगवान का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के गर्व में चूर देवराज इन्द्र ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने देवराज इन्द्र का त्याग कर दिया और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया।
जब दुर्वाषा ऋषि ने दिया देवराज इन्द्र को श्राप

इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को लक्ष्मी से हीन हो जाने का श्राप दे दिया। दुर्वासा मुनि के श्राप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन जानकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपनी परचम फहरा दिया, तब परामर्श हेतु देनराज इन्द्र, देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवता गण ब्रह्माजी की शरण में जाते है। देवताओं को देखकर ब्रह्माजी बोले, ‘‘देव राज इन्द्र ! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।’’
इस प्रकार ब्रह्माजी इन्द्र और बाकि देवताओं को आश्वस्त करने के बाद और उन्हें लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे। देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले—‘‘भगवान् ! आपके श्रीचरणों में हमारा प्रणाम। भगवान् ! हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए।’’ भगवान विष्णु पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए और बोले,‘‘देवगण ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है। दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे। देवगण ! वे जो शर्त रखें, उसे स्वाकीर कर लें। यह बात याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’ भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात बलि को बताया। दैत्यराज बलि ने देवराज इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये और इस तरह शुरू हुई कहानी समुद्र मंथन की।

Thursday, 16 June 2016

तीर्थोकामहत्व

तीर्थोकामहत्व
एक समय की बात है। गंगा के किनारे एक आश्रम में गुरु जी के पास कुछ शिष्यगण बैठे हुए कुछ धार्मिक स्थलों की चर्चा कर रहे थे। एक शिष्य बोला गुरु जी अब की बार गर्मियों में गंगोत्री, यमनोत्री की यात्रा हमें आपके साथ करनी है। आपके साथ यात्रा का कुछ अलग ही आनंद है। दर्शन के साथ-साथ हर चीज का महत्व भी जीवंत हो जाता है। तभी दूसरा शिष्य कहने लगा, गुरु जी आप हमेशा कहते हैं कि ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, वो घट-घट में है, आपमें व मुझमें भी ईश्वर है। गंगा तो यहां भी बह रही है, फिर क्यों गंगोत्री, यमनोत्री जाएं और 15 दिन खराब करें। गुरु जी एक दम शांत हो गए फिर कुछ देर के बाद बोले -जमीन में पानी तो सब जगह है ना, फिर हमें जब प्यास लगे, जमीन से पानी मिल ही जाएगा तो हमें कुएं, तालाब, बावड़ी बनाने की क्या जरूरत है।
कुछ लोग एक साथ बोले, ये कैसे संभव है। जब हमें प्यास लगेगी तब ही कुंआ खोदने में कैसी समझदारी है। गुरु जी बोले बस यही तुम्हारे प्रश्न, तुम्हारी जिज्ञासा का उत्तर है। पृथ्वी में हर जगह पानी होने के बावजूद जहां वह प्रकट है या कर लिया गया है, आप वहीं तो प्यास बुझा पाते हैं। इसी तरह ईश्वर जो सूक्ष्म शक्ति है, घट-घट में व्याप्त है, ये तीर्थ स्थल, कुंए और जलाशयों की भांति, उस सूक्ष्म शक्ति के प्रकट स्थल हैं।
जहां किसी महान आत्मा के तप से, श्रम से, उसकी त्रिकालदर्शी सोच से वो सूक्ष्म-शक्ति इन स्थानों पर प्रकट हुई और प्रकृति के विराट आंचल में समा गई। जहां आज भी जब हमें अपनी आत्मशक्ति की जरूरत होती है तो इन स्थलों पर जाकर अपनी विलीन आत्म-शक्ति को प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में हमारी इच्छा शक्ति को यहां आत्मशक्ति मिलती है और हमें प्यास लगने पर कुंआ खोदने की जरूरत नहीं होती।

Wednesday, 15 June 2016

ॐ के 11 शारीरिक लाभ:

ॐ के 11 शारीरिक लाभ:

ॐ : ओउम् तीन अक्षरों से बना है..
अ उ म् ।

"अ"  का  अर्थ  है उत्पन्न  होना,
"उ"  का  तात्पर्य  है  उठना,  उड़ना  अर्थात्  विकास,
"म"  का  मतलब  है  मौन  हो  जाना  अर्थात्  "ब्रह्मलीन"  हो  जाना।

ॐ  सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है।
ॐ का उच्चारण शारीरिक लाभ प्रदान करता है।

जानीए
ॐ कैसे है स्वास्थ्यवर्द्धक और अपनाएं आरोग्य के लिए ॐ के उच्चारण का मार्ग...

01. ॐ और थायराॅयडः-
ॐ का उच्‍चारण करने से गले में कंपन पैदा होती है जो थायरायड ग्रंथि पर सकारात्मक प्रभाव डालता है।

02. ॐ और घबराहटः-
अगर आपको घबराहट या अधीरता होती है तो ॐ के उच्चारण से उत्तम कुछ भी नहीं।

03. ॐ और तनावः-
यह शरीर के विषैले तत्त्वों को दूर करता है, अर्थात तनाव के कारण पैदा होने वाले द्रव्यों पर नियंत्रण करता है।

04. ॐ और खून का प्रवाहः-
यह हृदय और ख़ून के प्रवाह को संतुलित रखता है।

05. ॐ और पाचनः-
ॐ के उच्चारण से पाचन शक्ति तेज़ होती है।

06. ॐ लाए स्फूर्तिः-
इससे शरीर में फिर से युवावस्था वाली स्फूर्ति का संचार होता है।

07. ॐ और थकान:-
थकान से बचाने के लिए इससे उत्तम उपाय कुछ और नहीं।

08. ॐ और नींदः-
नींद न आने की समस्या इससे कुछ ही समय में दूर हो जाती है। रात को सोते समय नींद आने तक मन में इसको करने से निश्चिंत नींद आएगी।

09. ॐ और फेफड़े:-
कुछ विशेष प्राणायाम के साथ इसे करने से फेफड़ों में मज़बूती आती है।

10. ॐ और रीढ़ की हड्डी:-
ॐ के पहले शब्‍द का उच्‍चारण करने से कंपन पैदा होती है। इन कंपन से रीढ़ की हड्डी प्रभावित होती है और इसकी क्षमता बढ़ जाती है।

11. ॐ दूर करे तनावः-
ॐ का उच्चारण करने से पूरा शरीर तनाव-रहित हो जाता है।

आशा  है  आप  इसे  उन  लोगों  तक  भी  जरूर  पहुंचायेगे  जिनसे  आप  प्यार   करते  हैं  और  जिनकी  आपको  फिक्र है ।

।।  पहला  सुख  निरोगी  काया  ।।
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Tuesday, 14 June 2016

एकादशी में चावल वजिर्त क्यों

🌺एकादशी में चावल वजिर्त क्यों ?🌺

🌺एक पौराणिक कथा के अनूसार
माता शक्ति के क्रोध से भागते-भागते भयभीत महर्षि मेधा ने अपने योग बल से शरीर छोड़ दिया और उनकी मेधा पृथ्वी में समा गई। वही मेधा जौ और चावल के रूप में उत्पन्न हुईं । यह घटना एकादशी को घटी थी। इसीलिए जौ और चावल को जीवधारी माना गया है।
🌺 अतः इस दिन चावल खाना महर्षि मेधा के शरीर के छोटे-छोटे मांस के टुकड़े खाने जैसा माना गया है l
🌺 आज भी जौ और चावल को उत्पन्न होने के लिए मिट्टी की भी जरूत नहीं पड़ती। केवल जल का छींटा मारने से ही ये अंकुरित हो जाते हैं। इनको जीव रूप मानते हुए एकादशी को भोजन के रूप में ग्रहण करने से परहेज किया गया है, ताकि सात्विक रूप से विष्णुस्वरुप एकादशी का व्रत संपन्न हो सके।
🌺 एकादशी के विषय में शास्त्र कहते हैं, ‘न विवेकसमो बन्धुर्नैकादश्या: परं व्रतं’ यानी विवेक के सामान कोई बंधु नहीं है और एकादशी से बढ़ कर कोई व्रत नहीं है। पांच ज्ञान इन्द्रियां, पांच कर्म इन्द्रियां और एक मन, इन ग्यारहों को जो साध ले, वह प्राणी एकादशी के समान पवित्र और दिव्य हो जाता है।
🌺एकादशी जगतगुरु विष्णुस्वरुप है, आदिकाल में देवर्षि नारद ने एक हजार वर्ष तक एकादशी का निर्जल व्रत करके नारायण भक्ति प्राप्त की थी। वैष्णव के लिए यह सर्वश्रेष्ठ व्रत है ।🌷👏🏻🙏🏻🌹💐

मित्रता की मिसाल

मित्रता की मिसाल -

दो मित्र थे । वे बड़े ही बहादुर थे उनमे से एक ने अपने बादशाह के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई । बादशाह बड़ा ही कठोर और बेरहम था जब उसे मालूम हुआ तो उसने उस नौजवान को फांसी पर लटका देने का आदेश दे दिया ।

नौजवान ने बादशाह को कहा आप जो कर रहे है वो ठीक है और मैं ख़ुशी ख़ुशी मौत के आगोश में चला जाऊंगा लेकिन आप मुझे थोड़ी मोहलत दीजिये कि मैं गांव जाकर अपने बच्चो से मिल आऊं ।

बादशाह ने कहा नहीं ऐसा नहीं हो सकता मुझे तुम पर भरोसा नहीं है तो उस नौजवान के मित्र ने कहा कि महाराज मैं इसकी जमानत देता हूँ अगर ये लौट कर नहीं आये तो इसकी जगह मुझे फांसी दे दीजियेगा तो बादशाह हैरान रह गया क्योकि अब तक उसने ऐसा कोई आदमी नहीं देखा था तो दूसरो के लिए अपनी जान देने को तैयार हो तो बादशाह ने उसे गांव जाने की सहमति दे दी और उसे छह घंटे का टाइम दिया गया ।

नौजवान चला गया और उसने देखा कि उसे लौटने में पांच घंटे का समय लगेगा और वो आराम से जाकर आ सकता है अपने बच्चो से मिलकर लौटते समय रस्ते में उसका घोडा ठोकर खाकर गिर गया और फिर उठा ही नहीं और उस नौजवान को भी चोट आई और इसी वजह से उसे आने में देरी हो गयी उधर छह घंटे बीत जाने के बाद उसका मित्र खुश हो रहा था और भगवान से प्रार्थना कर रहा था की उसका मित्र नहीं आये ताकि वो अपने दोस्त के काम आ सके ।

मियाद पूरी हो जाने के बाद मित्र को फांसी पर लटकाया जा रहा था कि नौजवान आ पहुंचा और उस से कहा अब तुम घर जाओ और मुझे विदा करो तो मित्र ने कहा यह नहीं हो सकता तुम्हारी मियाद पूरी हो गयी है तो नौजवान ने कहा ये मेरी सज़ा है सो जाहिर है मुझे इसे सहने दो तुम अपने घर जाओ ।

दोनों मित्रो की सज़ा को बादशाह देख रहा था तो उसकी आँखे डबडबा आयीं और उसने दोनों को बुलाकर कहा मेने तुमको माफ़ कर दिया है और तुम्हारी दोस्ती ने मेरे दिल पर गहरा असर डाला है और उसके बाद बादशाह ने कभी किसी पर जुल्म नहीं किया |

श्री हनुमान चालीसा (भावार्थ एवं गूढार्थ सहित).....

                    ॥ श्री हनुमते नम: ॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥ (13)

अर्थ :- श्रीराम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया कि तुम्हारा यश हजार-मुख से सराहनीय है।

गुढार्थ :- जिस प्रकार भगवान श्रीराम और भगवान श्री कृष्ण ने अवतार लेकर इस सृष्टि में आकर इसकी महत्ता बढायी।
उसी प्रकार श्री हनुमानजी ने भक्ति की महत्ता बढाई, इसीलिए ऐसे भगवान के परम भक्त के यश की सारा संसार प्रशंसा करता है।

इतना ही नहीं स्वयं परमात्मा उन्हे अपने हृदय से लगाते हैं, यह भक्ति का अंतिम फल है।

भक्ति का यह आदर्श हनुमानजी हमारे सामने रखते हैं, इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है:-
‘‘सहस बदन तुम्हारे जस गावैं, अस कहि श्रीपति कंठ लगावै।’’

हनुमानजी सीता की खोज करके वापस आते हैं तो राम जी कहते हैं:- ‘हनुमान, तुम्हारे मेरे उपर अगणित उपकार है, ‘‘तुझे क्या दूँ इस जगत में कौनसी चीज तुझे देने जैसी है, कोई भी नहीं, इसीलिए मै तुझे आलिंगन ही देता हूँ।

इसीलिए भगवान राम ने उन्हे कुछ न देते हुए और प्रत्युपकार की भी इच्छा न रखते हुए केवल आलिंगन प्रदान किया है।

इस बात से भगवान राम के अंत:करण में उनको क्या स्थान प्राप्त था यह पता चलता है।

उत्तरकाण्ड श्री राम ने हनुमानजी को ‘पुरुषोत्तम’ की पदवी से विभूषित किया है।

राम जी कहते हैं कि:- 'हनुमान ने ऐसा दुष्कर कार्य किया है कि जिसे लोग मनसे भी नही कर सकते हैं।'

वाल्मीकि रामायण मे लिखा है:-
यो हि भृत्यो नियुक्त: सन् भत्र्रा कर्मणि दुष्करे।
कुर्यात् तदनुरागेण तमाहु: पुरुषोत्तमम्॥

ऐसा कहकर श्रीराम हनुमानजी को पुरुषोत्तम की पदवी देते हैं।

धन्य है हनुमान जी, जिन्होने वानर होते हुए भी प्रभु के स्वमुख से पुरुषोत्तमकी पदवी प्राप्त करके उनके बराबर का स्थान प्राप्त किया है।

जिन्होने प्रभु को जीवन अर्पण करके सार्थकता का अनुभव किया और जो लोग विश्वंभर पर उपकार करने जगत में आये, वे महान हैं।

हनुमानजी की तरह जो ‘नरोत्तम’ बन गये हैं उनको नमस्कार है।

‘नरोत्तम’ कौन है...?

प्रभु को जिसने जीत लिया है वह ‘नरोत्तम’ है।

संसार में आकर जिन्होने प्रभु को जीत लिया है उनको नमस्कार है।

प्रभु को जीतने वाले ये भक्त कितने महान होंगे, उन्होने निष्काम भगवान को सकाम बना दिया।

भगवान निष्काम है, निष्काम भगवान में भी जो कामना खडी करते हैं, वे ‘नरोत्तम’ हैं।

श्री हनुमानजी ऐसे ही नरोत्तम है, इसीलिए तुलसीदासजी ने लिखा है:- ‘‘सहस बदन तुम्हरो जस गावै, अस कहि श्रीपति कंठ लगावै।’’

यदि हमें भी प्रभु का आलिंगन चाहिए तो श्री हनुमान जी की तरह भक्ति करनी होगी तथा उनकी भांति ज्ञान, कर्म और भक्ति का जीवन में समन्वय लाना होगा।

ज्ञानी कर्मयोगी भक्त को भगवान प्रत्यक्ष मिलने दौडते है, जिस प्रकार भक्त पुंडलिक को मिलने भगवान स्वत: दौडकर उनके द्वारपर आये।

संत एकनाथ के यहाँ तो जगत् की चिद्घन शक्ति सगुण-साकार होकर घरका काम करती और स्वयं भोजन बनाकर खिलाती थी, वे कितने भग्यशाली होंगे?

संत एकनाथ ने भगवान का अनुपम कार्य कर उनपर जो ऋण चढाया था उससे उऋण होने के लिये ही भगवान ने उनकी चाकरी की।

इस भारत वसुन्धरा में अनेक प्रभु भक्त हुये हैं, परन्तु हनुमानजी भक्त सम्राट हैं।
भगवान राम ने स्वयं उन्हे अपने कंठ से लगाया है ऐसा तुलसीदास जी ने लिखा है।

जय जय सिया राम भक्त हनुमानजी